कवितालयबद्ध कविता
( हँसी भी एक योग है. योगदिवस पर करिये हास्य-योग इसे पढ़कर )
बस में खडी़ दो देवियाँ
बनकर बिल्कुल रणचंडियाँ
एक सीट के वास्ते
आपस में झगड़ रही थी
नहले पे दहला मारती
दोनों यूँ अकड़ रही थी
" बस को हाथ दिखाकर तो
मैंने ही पहले रोका था
मेरी वजह से ही तुझको
मिला चढ़ने का मौका था "
" मगर मैं तुझसे पहले ही
बस की तरफ बढी़ थी "
" बढ़ने से क्या होता है,
पहले तो मैं ही चढी़ थी "
" मगर पहले तो मैंने ही
लिया था टिकट "
" पर मैं ही आयी थी
पहले इस सीट के निकट "
" पर रुमाल तो मैंने ही
पहले रखा था "
परिस्थिति यूँ हो गयी थी
सचमुच बडी़ विकट
सब मुसाफिर समझा-
समझाकर हार गये थे
अपनी-अपनी सीट पर
फिर से पधार गये थे
पर अंगद सा पाँव जमाकर
दोनों झाँसी की रानी बन
फुफकार और ललकार रही थी
" मैं अपनी सीट नहीं दूँगी "
" आज इस पर बैठकर
मैं ही सफर करूँगी "
" मगर मैं तुझको सफर नहीं,
बस suffer ही करवाऊँगी "
इस सीट पर तो बैठकर
बस मैं ही जाऊँगी "
एक कोने में बैठे एक अंकल
ना जाने क्यूँ मुस्कुरा रहे थे
फोकट के तमाशे का
भरपूर लुत्फ़ उठा रहे थे
सब बोले, " ये क्या अंकल ?
दो ना कुछ इनको अकल
इस बवाल के सवाल का
कुछ तो करवाओ समाधान
बालों की सफेदी का
दिखलाओ कुछ तो कमाल "
अंकल कुछ बड़प्पन सा दिखलाकर
उन दोनों के पास जाकर
बोले, " तुम दोनों में जो भी हो बडी़
वह बैठे और छोटी रहे खडी़ "
और यह क्या ?
देखते ही देखते
हो गया एक चमत्कार
यूँ तकरार बनी मनुहार
लखनवी अंदाज में वे
"आप ", "आप " करने लगी
मर्यादा का दोनों ही
यूँ जाप करने लगी
" दीदी, आप बैठो ना,
आप तो मुझसे बडी़ हैं "
" मैं नहीं, आप बैठो,
आप मुझसे बडी़ हैं "
" दीदी, आप थकी हैं,
इतनी देर से खडी़ हैं "
कौन कह सकता
अब इनको देखकर,
मिनटों पहले ये लडी़ हैं
अंकल की यह युक्ति
ऐसे काम आ गयी
ध्वनि प्रदूषण से सारी
बस मुक्ति पा गयी
द्वारा : सुधीर अधीर