कविताअन्य
सादर नमन
खो गये दिन मुहब्बत के अब तो यहाँ,
अब तो अपनों से भी रही यारी नहीं।
हर चमन ही मरुथल हुआ जा रहा,
फूलों की अब तो कोई है क्यारी नहीं।
भाई से प्रेम भाई को भी न रहा,
दे रहा वह भी खुलकर उसे गालियाँ।
कोई छोटे बड़े का है मतलब नहीं,
शेष अब तो कोई शिष्टाचारी नहीं
खो गये दिन मुहब्बत के अब तो यहाँ,
अब तो अपनों से भी रही यारी नहीं।
पैसों से रिश्तों को तोलने में लगे,
भूल बैठे पुराने दिनों को यहाँ।
लगे काटने उन शाखों को वे,
जिनके दम पर थे जिन्दा कभी वे यहाँ।
क्या कहें अब जमाने की इस भीड़ को,
चाहता है यह जाना यहाँ पर कहाँ?
गैरों की भी रही कोई पीड़ा नहीं,
और अपनों से भी भाईचारी नहीं।
खो गये दिन मुहब्बत के अब तो यहाँ,
अब तो अपनों से भी रही यारी नहीं।
अमलेन्दु शुक्ल
सिद्धार्थनगर उ०प्र०