कवितालयबद्ध कविता
हालातों के कीचड़ में
धँसते-फँसते से, सनते से
पाँवों के ये अमिट निशान
बनने से पहले बिगड़ते,
उखड़ते, उजड़ते से
खोते वजू़द, गुम होते से
अपना सब कुछ खोते से
कुछ बदनसीब जहान
मिलने से पहले बिछुड़ते,
दम घोटते से दायरे में
बंद, दबते और घुटते,
टूटते से, छूटते से,
ना जाने क्यूँ रूठते से
रोटी, कपडा़ और मकान
कड़वे सच के चील-गिद्ध की
निर्मम सी चोंचों में बिंधते
नन्हों, मुन्नों, अपनों, अदनों के
कुछ मासूम सपनों के
मुठ्ठी भर कुछ आसमान
हाँ, इन नाउम्मीदी की
कँटीली झाडि़यों में
बिंधती-छिलती,
होती बिल्कुल तार-तार,
लाचार और बेजार,
कुछ बेलें जो ना कभी भी
कही भी ना चढ़ सकी परवान
ओ दुनिया के रखवाले,
ये धरती, नदिया, आसमाँ,
पेड़, जंगल और पहाड़,
ये संसार बनाने वाले,
रचने से पहले सोचा था,
तूने क्या, कभी भी
जाने-अनजाने ही सही
क्या इतना बदसूरत होगा
कभी, कहीं, किस तरह भी
तेरे हाथों से बना
तेरा सुंदर, खूबसूरत सा जहान
तेरी अद्भुत कल्पना के
रंग-बिरंगे रंग-ढंग,
उस सतरंगी से
इंद्रधनुष के सात रंग
सबके सब वे,
गड्डमड्ड से
मिलकर हुए सफेद से
कभी कफन पे,
कभी दफनते
नदिया की रेत में
और कहीं एक
नववधू के जोडे़ पे
एक मनहूस सी
सफेदी फेंकते,
यह सब कुछ
हम रहे देखते,
दूर खडे़,
मजबूरियों में जकडे़ से
या खुद ही उनको पकडे़ से
कभी डूबते,
कभी सूखते खेत में
सूखी फसलें,
भूखी नस्लें
बनकर आये
कड़वे सच को
उसके असली वेश में
चमचमाते झूठ की
चरमराकर टूटती
ऊँची दीवारें लाँघकर,
तोड़ फोड़कर,
कूद-फाँदकर,
सड़कों पर खाक छानती
इस दुनिया को पहचानती
मजबूर हकीकत को
बदसूरत रूप में
कभी ठिठुरती,
कँपकँपाती सिकुड़ती,
हाड़ कँपाती
सर्दियों की छाँव में
छालों से छलनी पाँव में
उजडे़ और बिछडे़ गाँव में
और कभी जेठ की भरी दुपहरी,
सिर पर आकर, चढ़कर ठहरी
चिलचिलाती धूप में
क्या यही जिंदगी है ?
हाँ तो फिर यह ऐसी क्यों है ?
जीवन की यह रात सिर्फ
अमावस सी क्यों है
जीवन की यह शाम
इतनी क्यूँ उदास है ?
क्यूँ जिंदगी को ढोते-ढोते
थक चुका है हर कंधा,
चौपट सब रोजगार, धंधा
इस पहाड़ पर चढ़ते-चढ़ते
फूल रही और टूट रही,
दम तोड़ रही,
संग छोड़ रही,
मृत्यु से नाता जोड़ रही
हर साँस है
बिखरी-बिखरी सी जिंदगी
टूटी हर एक आस है
सुरसा सा बनकर मुँह बाये
बन भस्मासुर सा हाथ फैलाये
हर तरफ दीखता खडा़ विनाश है
द्वारा: सुधीर अधीर