कहानीसामाजिक
वो बुढ़िया और मैं
सुबह सुहानी और रात सच में रजनीगंधा सी महकने लगी। देश लाकडाउन क्या हुआ कि प्राकृत की तो जवानी लौट आई।
एक तरफ़ जहाँ वायरस का भूत हमारी साँसो और सोसाइटी का दुश्मन बन हमें फिर से छुआ छूत की ओर ले जा रहा है वहीं वायु मंडल और नक्षत्रशाला सब ख़ुशगवार हो रहीं हैं।
धुएँ के बादल क्या छटे कि लोग़ो को अपनी छत से शहर से कोसों दूर के शहर नज़र आने लगे ।
बात में कुछ हद तक तो सच्चाई थी क्यूँ कि हवाओं में तज़गी थी और सुदूरवर्ती नज़ारे काफ़ी करीबी लग रहे थे।
भरी दोपहर में मुझे ही चाँद और सूरज एक साथ नज़र आए पर आज की रात तो कमाल ही हो गया मैं अपने लान में चहल क़दमी कर रहा था नीले आसमान के सितारे जड़े दामन में चाँद अटखेलियाँ करता हुआ मुस्कुरा रहा था।
मैंने भी उसकी शीतलता का जाम भरा और एक घूँट गटक लिया और जी भर के उस अधूरे चाँद को निहारा और मेरा ध्यान गया कि भले मुझे अपनी छत से दूसरा शहर न दिखा हो पर चाँद की बुढ़िया ज़रूर नज़र आने लगी।
तभी मेरे ज्ञान के ऊपर बचपन ने अपना आवरण डाल दिया और मुझे चाँद में चरखा कातती बुढ़िया कुछ और उजली सी नज़र आई अब मैं बड़ी तन्मयता से सिर्फ़ उस बुढ़िया अम्मा को देख रहा था कि तभी चाँद कुछ और नीचे हो आया और उस बुढ़िया ने मुझे आवाज़ लगाई।
“क्या सोच रहे हो ज्ञानी पुरुष?”
मैं चौंक गया और इधर उधर देखने लगा कि फिर से स्निग्ध आवाज़ ने मेरे क़ानो का स्पर्श किया।
“मैं चाँद की अम्मा और तुम सब की दादी अम्मा हूँ याद नहीं क्या?”
अब मैं बोला।
“दादी अम्मा आप अब नज़र क्यूँ नहीं आती ? क्या आप अब हमारी पृथ्वी का नज़ारा नहीं लेती?”
अब एक प्यारी सी हँसी ने पूरे वातावरण को गुंजायमान कर दिया
और दादी बोली।
“न रे, कभी अम्मा दादी भी अपने बच्चों को भूली है सब देखती हूँ पर तुम्हारे यहाँ से उठते तरह-तरह के धुएँ ने मेरी नज़र कमजोर कर दी है तो तुम सब अब मुझे धुंधले से दिखाई पड़ते हो पर क्या करूँ दादी माँ हूँ न तो प्यार ख़त्म नहीं होता।”
मैंने अपना ज्ञान बघारा और कहा।
“अरे दादी ये सब तो हमारी प्रगति है और प्रगति न करें तो तुम तक कैसे पहुँचें? बोलो तो जार बताओ मुझे।”
“तभी तो ज्ञानी कहा तुम्हें। पर एक बात याद रखना ज्ञान विज्ञान और संसार इसमें सामंजस्य बहुत ज़रूरी है नहीं तो अगर मैं अंधी हो गई तो फिर कैसे देखूँगी तुम सब को।”
मैं सोचने लगा सही तो कह रही हैं दादी अम्मा अगर ऐसी महामारी के बाद भी हम न चेते तो अब न जाने इससे बड़ा कौन सा विध्वंस होगा जो हमें नेस्तनाबूद कर देगा।मुझे चुप देख दादी ने फिर आवाज़ दी।
“सुनो मैं ये नहीं कहती कि तुम प्रगति न करो ख़ूब आगे बढ़ो पर आने वाली पीढ़ी को भी इस बुढ़िया के अस्तित्व की कथा कभी तो अँगना में बैठ के सुनाओ, अरे नहीं है आँगन तो पार्क में ही ले जाकर दिखाओ उस जादू के पिटारे को दे कर उनका बचपन और मेरा दुलार तो ख़त्म न करो।”
मैंने हाँ में सर हिलाया और बोला।
“दादी तुम कह तो सच्ची रही हो पर सारी गड़बड़ी तो ऊपर से ही हुई है एक तो बस चौबीस घंटे दिए और ऊपर से इतना काम तो कब पार्क ले जाऊँ और काम करूँ? अभी तो डर ने सब कुछ रोक दिया है तो तुमसे बात करने का वक्त मिला है नहीं तो।”
दादी ने बीच में ही मुझे रोका और बोली।
“डर से मत रुको कम नहीं होते चौबीस घंटे इसी में से वक्त निकालो और सब कुछ सहूलियत से करो भागम भाग से बचो तभी ज़िंदगी का सुख ले पाओगे और देखना तुम इसी चौबीस घंटे में ही किसी दिन कोई खोज निकालेगा इस वायरस से निपटने का तोड़।”
मैं बोला।
“हाँ दादी सच कह रही हो आज के माहौल में तो सब कुछ रुक गया है अच्छा एक बात और बताओ दादी! कैसा दिखता है वहाँ से मेरा भारत?”
दादी ने नीचे झुक कर प्यार से मेरा माथा चूम लिया और बोली।
“सारे जहाँ से अच्छा।”
मैं भाव विभोर हो गया मैंने अपने दोनो हाथ जोड़ कर उन्हें प्रणाम किया मैं अपने विचारों में प्रसन्नचित खोया हुआ था कि तभी बदल के एक मतवाले टुकड़े ने चाँद को अपनी आग़ोश में ले लिया और मैं अपने ख़्यालों से निकल फिर अपनी दुनिया में आ गया।
जानता था कि ये कोई ख़्वाब नहीं था जो अभी- अभी मैंने जिया पर फ़ुरसत के इस क्षण में अपने बचपन को जी मेरा मन फूल सा खिल उठा।
और मैंने प्रण लिया कि हफ़्ते में एक दिन मैं किसी भी वाहन का प्रयोग नहीं करूँगा।
धरती और आकाश के मिलन के बीच आए इस धुएँ को कम करने का मैं ये छोटा सा कदम ज़रूर उठाऊँगा।
रात बहुत हो चुकी थी नींद के झोंके मेरी उबासियों को बढ़ाने लगे तो मैं अपने कमरें की तरफ़ चल दिया पर अब।
रजनीगंधा ने रातरानी से बतियाना शुरू कर दिया था।
ज्योत्सना सिंह
लखनऊ
9:53pm.
5-4-2020
अत्यंत सुन्दर रचना और महत्वपूर्ण सन्देश..! लाक डाउन ने हमें, आत्मविश्लेषण का सुअवसर तो दिया ही है. रोजमर्रा की भागदौड़ से दूर. कुछ अपनों का सान्निध्य.! अब यह हमारे ऊपर है कि हम कितना सीखते हैं..!