कहानीलघुकथा
पर्यावरण दिवस विशेष लघुकथा
#शीर्षक
"बरगद का पेड़"
ट्रिन-ट्रिन , ट्रिन-ट्रिन
" शिखा जल्दी घर आ जाओ बाबूलाल फिर सदल-बल आया है "
बाबा की मर्माहत आवाज सुन शिखा रूआंसी आवाज में...,
"क्या? क्या कहा बाबा फिर से? "
वह झट से बैग उठा आनन- फानन में ऑफिस की सीढ़ियां फर्लांघती हुई नीचे उतर गई।
उसके घर की गली वाले नुक्कड़ पर माँ के हांथों लगाया हुआ पौधा अब विशाल वृक्ष बन गया है।
जो ना सिर्फ शिखा के जीवन ,
अपितु मुहल्ले वालों के लिए भी उतना ही महत्वपूर्ण है।
शांत स्वभाव की शिखा को माँ अक्सर कहती थी,
" देख इसे तू अपना भाई समझ जब भी तेरा दिल घबराऐ तू इस " झुमरू " से बातें कर लिया करना"।
अब जब माँ नहीं रही , वह हर तरफ से अकेली पड़ गई है।
रोज दिन में किसी समय वक्त निकाल वह इसके पत्ते को स्पर्श कर माँ की स्नेहिल , स्निग्ध और कोमल छुअन को महसूस करती है।
इसकी छांव में मुहल्ले भर के बुजुर्गों का जमावड़ा दिन भर लगा रहता है।
बच्चे इसके आसपास ही खेलते रहते हैं।
जल्दीबाजी में तय किए रास्ते की वजह से शिखा की सांस फूल रही है।
अपनी फूलती सांसों पर काबू करने का प्रयत्न करती शिखा बाबूलाल से उलझ पड़ी।
यह क्या?
हैरान शिखा देख रही है।
ठेकेदार के डर से मुहल्ले वालों की भीड़ पीछे हटने लगी है।
लेकिन शिखा उनकी मजाक उड़ाती नजरों की परवाह न कर चीखती-चिल्लाती पेड़ से लिपट गई आंखों से अविरल आंसू बह रहे हैं,
" नहीं भैय्या नहीं...माँ चली गईं ,
अब तुम्हें नहीं खो सकती चाहे कुछ भी हो जाए"।
इधर शिवेंद्रनाथ ने हिम्मत कर वन-विभाग को इत्तिला दे दी है ।
दूर से ही गाड़ी के साएरन सुन बाबूलाल ठेकेदार ने मोटरसाइकिल पर किक मार दी।
सीमा वर्मा ©®