कवितालयबद्ध कविता
एक कड़वे सच के आईने में
देखती सी खुद को असली मायने में
जिंदगी खडी़ है आज खुद के सामने
बन गयी है आज
एक उल्टी गिनती,
सिर्फ एक आँकडा़
बस इकाई या दहाई या सैंकडा़,
हजार या फिर लाख पर
आकर खडी़
मौत की काली छाया
आज यूँ सिर पर चढी़
हाँ, जिंदगी
इस डरावनी सी
घटा के पीछे से
एक मरियल धूप सी बन
जब-तब झाँकती
भूख की परछाइयों से,
लाचारियों, रुलाइयों से
एक रोटी का टुकडा़ बन
बार-बार मुँह ताकती
कभी काँपती, कभी हाँफती,
कभी छींकती, कभी खाँसती
मौत को जैसे रही हो
पल-पल फाँकती
कभी एक अस्पताल की तरफ मुखातिब,
इंतजार बन लाइन में होकर शामिल
और कभी एक
सफेद सी चादर तले
मौत से मिलकर गले
पडी़ एक रेत के बिछौने पे
पाने फिर पंचत्व को
खुले आसमाँ के तले
और वो जो सिर्फ
जिस्म से जिंदा है
लगता है मजबूर सी इस
जिंदगी से शर्मिंदा है
देख रहा है चुपके-चुपके,
दूर-दूर, रंजूर सा
होकर मजबूर
सुन रहा है आहट
पल-पल मौत की
जो आती है
दस्तक देती सी
दबे पाँव
छुपते-छुपते
वो चीख पड़ना चाहता है
है अधमरा सा, फिर भी
जिंदा दीख, लड़ना चाहता है
और फूट पड़ना चाहता है
बन आँसुओं का एक सैलाब
एक कड़वा सच, एक नंगा सच,
सारी हकीकत, सब हालात
कहने को होकर बेताब
तभी एक अनजाना सा डर
कुछ पहचाना सा डर आकर
अनायास ही डराकर
होंठ सिल देता है जैसे
इस शब्दहीन सी सिसकी के
याद बनकर सिर्फ मौत की
आती सी एक हिचकी के
एक साये सा लहराता सा,
गहराता सा एक डर
बन गया जैसे अमर
ढक रहा है जीवन को,
बन श्वेत सी मनहूस चादर
कह रहा है शायद यूँ कुछ
जीवन तो है क्षणभंगुर
और एक विषबीज से
बाहर निकली बनकर अंकुर
रक्तबीज सी फूलती-
फलती मृत्यु ही
बस अजर अमर है
बाकी सब कुछ नश्वर है
पर यह भी सच है,
मृत्यु ने कब
जीवन को अवसर दिया है ?
जीवन ने खुद आगे बढ़कर
खोज अपना पथ लिया है
हर मनोरथ, मृत्यु का,
निष्फल किया है
इस वामन ने
हर कालखंड में
इस काल-बलि से
हर युग में,
हर मन्वंतर में
कल, आज और कल,
इन तीन, हाँ, बस तीन
पग का दान लिया है
बन विराट, वामन से फिर
इसके हर एक पल में फिर
पग-पग पर निज पग का
नव विस्तार किया है
द्वारा : सुधीर अधीर