कवितालयबद्ध कविता
एक बडे़ आग के गोले से
टपके हौले-हौले से
पिघले सोने की बूँद सी
यह प्यारी धरती
सचमुच सबसे न्यारी धरती
माँ की गोदी सी बन
ममता की एक मूरत
एक दुआ सी पाक-साफ सी,
हरी-भरी और खूबसूरत
सबका लालन-पालन करती
हम सबके
हर आघात पर यूँ
रहती नीरव,
धरती धीरज
यह धरती
क्या सिर्फ और सिर्फ
बस इंसान की है ?
उस परमपिता शिव और
जगदंबस्वरूपा प्रकृति के
मिलन से जन्मा संसार,
जल-थल, जड़-चेतन में यूँ
वह निराकार बनकर साकार
गगन, पवन, अनल, जल, भूतल
बन प्रतिबिंबित सा होता वह
दिव्य, अद्भुत कलाकार
पर्वत, नदिया, सागर या फिर
कण-कण में सिमटे से
ये उसके मंदिर,
झर-झर झरता सा एक झरना,
गंगा, यमुना या फिर
एक छोटा सा दरिया
ये नीलकंठ से वृक्ष,
विष को अमृत करने में दक्ष,
प्राणिमात्र के जीने का
हर एक जरिया
इन सब पर ये इधर-उधर,
जीवन बनकर रहे उभर
उस चित्रकार की तूलिका के
रंगबिरंगे ये निशान
यह कायनात,
हाँ, उसकी यह सौगात,
यह खूबसूरत सा जहान
इन सभी के मालिक हैं क्या
सिर्फ हमीं इंसान ?
मगर ये इंसाँ जाने क्यूँ
मद में यूँ ऐंठा,
अहंकार मन में छिपकर
कुछ ऐसे बैठा
इन सबको बस
अपनी ही
जागीर समझ बैठा
उसकी लिखी तकदीर को
उसकी रची तस्वीर को,
उसकी हर इबारत को,
उसमें छुपी इबादत को,
बस खुद की ही
तदबीर समझ बैठा
करने लगा यूँ मनमानी
सब कुछ अपने वश में
करने की ठानी
बनकर रावण
हर संपदा का
कर हरण
बन दुःशासन
अपनी इस माँ का
बार-बार यूँ चीरहरण
खोयी हर एक चेतना
और सोई हर संवेदना
बन गया विवेक
कुछ ऐसे कुंभकरण
कर लिया अकालमृत्यु का
क्षण-क्षण यूँ वरण
इन सब में सिमटे
जीवन का
क्षण-क्षण यूँ क्षरण
होना समर्थ ही
बन गया बस अर्थ
यूँ अस्तित्व का
लाठी ही आधार बना
हर भैंस के स्वामित्व का
हम भूल गये ना जाने क्यूँ
मूल्य सह-अस्तित्व का
परिणाम हमारे सामने है
अगर यही है विश्वविजय तो
इसके क्या मायने हैं ?
दुर्भिक्ष, सुनामी, कोरोना,
सब कड़वे सच के आईने हैं
जान और जहान दोनों
खडे़ आमने-सामने हैं
तब मृगतृष्णा से भटका मानव
अब बना त्रिशंकु, लटका मानव
इन दो पाटों के बीच
अब यूँ पिसता मानव
एक टूटी आस बनकर
और आखिरी साँस बनकर
बूँद-बूँद यूँ रिसता मानव
क्या विधि की सबसे
सुंदर इस रचना की
छवि के क्या बस
यही आईने हैं ?
द्वारा: सुधीर अधीर