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हाथ चल उठे - शिवम राव मणि (Sahitya Arpan)

कवितालयबद्ध कविता

हाथ चल उठे

  • 342
  • 7 Min Read

हाथ चल उठे और लिखा गया एक ख्वाब
बिना कलम के बिना किताब
ख्वाबों का पन्ना था वो बेहिसाब।
कुरेदना चाहता था हर लकीरों का नकाब
चेहरा था उसका मानों
एक शब्दकोश का सैलाब
चुरा लिये कुछ शब्द
और खाली कर दिया उसके हिस्से का तालाब
बस पूछिये मत
हाथ चल उठे
और लिख दी गयी एक अनकही सी किताब।

मुसाफिर सी चल रही थी मेरी यादों की स्याही,
आहिस्ते-आहिस्ते खरोंच रही थी स्मृति की मुंह-ज़ुबानी।
पलों को समेट रही थी इस तरह कि
छप गया हो वो लम्हों के अंदर,
आज़ाद हुआ तो बनके निकला
एक खामोशी का समंदर।
मेरे थे वो लफ्ज़ जो राह में भी
मेरी परछाई को बना दें,
कलम की रोशनाई दौड़ गयी उन रास्तो पर
जिस पर मेरी यादें दम तोड़ दें।
सहम सा गया
एक अनजानी सी लकीर को कुरेदने में,
कि डर रहा था वो
अपनी स्याही को कुछ पन्नों पर पसीजने में।
मोड़ था वो ऐसा मानो जिसको लिखकर
चंद यादों की तस्वीर बन जाए,
बस क्या बताएं, हाथ चल उठे
और कुछ ऐसा लिखा गया जिसको पढ़कर
एक ख्वाब पानी की बून्द बन जाए।

कुछ ही सही ,
शब्दों के साथ खेला तो हाथ चल उठे,
सागर से भरे एहसास को बटोरने में
कलम भी भीग उठे।
कहना आसान नहीं
इसलिए लिखकर बताया जा रहा हूँ,
कागजों पर छप कर रह गयी हैं कुछ लकीरें
बस उन पर बेताबी की स्याही फेरा जा रहा हूँ।
मेरे लफ़्ज़ों तक जो सिमटा हुआ था
आज किताब बनके सामने आया है जैसे,
पन्नों पर महफूज़ थी कुछ बातें
कल का मुसाफिर चलकर ले आया है जिसे।
कुछ ऐसा लिख दूं मैं
कि हर पल हकीकत सा लगने लगे,
बस पूछिये मत हाथ चल उठे
और कागद पर लिख हर एक शब्द
अपनी ज़ुबानी बोलने लगे।

शिवम राव मणि

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Kamlesh  Vajpeyi

Kamlesh Vajpeyi 3 years ago

अत्यंत सुन्दर..!

शिवम राव मणि3 years ago

आपका धन्यवाद

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