कविताअतुकांत कविता
#शीर्षक
स्त्री हूँ मैं पर अबला नहीं ...
प्रेम- दया -करूणा से भरी सबला हूँ
मोह की मीठी भावना में अविचल
बहती नदी चपला हूँ पर अबला नहीं हूँ...
मैंने खुद चाहा था तुम्हारी बेड़ियों में बंधना
ऐसा नहीं कि सक्षम नहीं थी मै , लेकिन स्वेच्छा से
सर झुकाया पूर्ण करने तुम्हारी इच्छाओं को !
कभी माँ -अनुजा तो कभी भार्या - पुत्री बन
स्वाभाविक क्रियाओं से संतुष्ट करती तुम्हारे
पाषाण हृदय की अभिलाषाऐं ।
चाही है मैंने बेले की कलियाँ खुशबू से भरी
पर मिली कांटों भरे ताज वैगनवोलिया ।
फिर भी ता उम्र कोई शिकवे ना शिकायत
चैतन्य भाव से निभाई जीवन की हर रसमें खाई हुई हर कसमें ।
लेकिन जब-जब शब्दों में बनावट सी आ गई तेरे ...
तब-तब रिश्तों में कड़वाहट सी आ गई है मेरे ...
अपनों के दिलों तक जाने वाली राहों में
कोई रुकावट सी आ गई है तभी तो ,
सर उठाया मैंने आखिर कब तक सहती
ना उठाती तो खुद अपनी ही नजर में गिर जाती मैं ?
स्त्री हूँ पर अबला नहीं मैं ...
सीमा वर्मा