कवितालयबद्ध कविता
हम सबके अपराध शायद
इतने बढ़ गये हैं
कि मास्क की इन
दोहरी, तिहरी परतों में
चेहरे छुपाने पड़ रहे हैं
हाँ, पाप किये हैं हमने इतने
कुदरत के खिलाफ
इंसानियत के खिलाफ
हम सब की इस माई की
मासूमियत के खिलाफ
खुदा की इस खुदाई की
रूहानियत के खिलाफ
हो नहीं सकते
अब ये सब
खुद की और
खुदा की भी
किसी अदालत में
शायद कभी भी माफ
किसी भी सच्ची या झूठी जिरह से
किसी भी सच्ची या झूठी वजह से
तालाबंदी, किलाबंदी से
घिरी किसी भी जगह पे
हमने नीलकंठ जैसे
इन पेडों को काटकर
माँ के हरे-भरे आँचल को
काट-छाँटकर
करके उसका बार-बार
यूँ चीरहरण
कर लिया
अकालमृत्यु का वरण
प्राणवायु के इन स्रोतों को रौंदकर
अदम्य लिप्सा के हाथों में
खुद को सौंपकर
हमने तो उस
डाल को ही काट दिया है
अपना खुद का वजूद यह,
जिस पर अब तक टिका हुआ है
हाँ, भोगों के बाजार में
मानव इतना बिका हुआ है
अपना जमीर अपनी जमीन
अब खो चुका है
कुंभकर्ण बनकर विवेक
इस तरह सो चुका है
अपने कल की राह में
खुद इतने काँटे बो चुका है
इस शरशय्या पर
अनगिन चुभते ये सवाल,
बन सुनामी बार-बार
करते से मन में बवाल,
अब पीछा नहीं छोड़ते हैं
हम लाख छुपा लें मास्कों की
इन परतों में अपना चेहरा
लाख बना लें कानों को
कितना भी बहरा
इनके काले साये मन से
नाता नहीं तोड़ते हैं
हाँ, जीवन की
इन बिखरी-बिखरी
मालाओं के टूटे धागे
आसानी से खुद को नहीं
जोड़ते हैं
और जुड़ भी जायें
फिर भी कुछ
गाँठे तो पड़ जाती हैं
जिंदगी अपने उस
सुंदर रूप में
लौटकर वापस
कहाँ आ पाती है
द्वारा : सुधीर अधीर