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कोई मजहब नहीं होता - Sudhir Kumar (Sahitya Arpan)

कवितालयबद्ध कविता

कोई मजहब नहीं होता

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कोई मजहब नहीं होता
भूखे पेट की भूख का
हर अँधियारे में खोजती
खुद का वजू़द,
जिंदगी की धूप का
वक्त की पाबंद रहकर
अनायास ही आ धमकती,
बिन बुलाये से मेहमान सी
मौत की इस छाँव का
और कब्र में लटके से
दो बूढे़ पाँव का

कोई मजहब नहीं होता
टूटती एक अंतिम साँस का
जिंदगी के आखिरी मुकाम पर
रूठती और टूटती
जीने की आस का
बूँद-बूँद को तरसते
सूखे गले की प्यास का

कोई मजहब नहीं होता
प्रियतम की आहट बनती,
कौए की काँव-काँव का
बूढे़ बरगद की छाँव का
बरसों पहले बिछुडे़ गाँव का
वर्षा जल पर तैरती
कागज की नन्हीं नाव का

कोई मजहब नहीं होता
ममता की मीठी लोरी का
हर घर-आँगन में खेलते
कान्हा की माखन-चोरी का
किसी भी माँ की गोदी का
आँसू बनकर छलकते से मोती का

कोई मजहब नहीं होता
माँ जैसी ही अन्नपूर्णा
इस जमीन का
माँ का चेहरा देखकर
उपजे हुए यकीन का
कर्त्ता की नीली छतरी से
फैले आसमान का
और पिता के
आशीषों के साये में
घर-आँगन में
पलते हुए जहान का

कोई मजहब नहीं होता
इंसाँ से इंसाँ की नफरत का
इसके साँचे में ढलती सी
इंसानी फितरत का
शैतानी से साये के
इस अँधेर का
मिथ्या के साये में पलते
उन्मादों की आँधियों में
धरती पर पत्तों सी गिरती
लाशों के एक ढेर का

मजहब होता है तो बस
एक अच्छी, सच्ची सोच का
दूसरों की सोच को भी मान देते
सरल, तरल विचारों की
एक मुलायम लोच का

मजहब तो होता है बस
तन और मन की सादगी का
बंदगी बनती हुई
एक जिंदगी का
हर लघु में प्रभु को खोजती
रूहानी सी संजीदगी का
खुद की गलती पर
अहंशून्य शर्मिंदगी का

हाँ, ऐसे ही मजहब का तो
कोई मतलब है
यह नहीं तो लेकर बस
यूँ नाम मजहब का,
भारीभरकम,
लंबा-चौडा़ तामझाम
सब कुछ बेमतलब है
हाँ, यह सब कुछ बेमतलब है

द्वारा : सुधीर अधीर

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शिवम राव मणि

शिवम राव मणि 3 years ago

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