कविताअतुकांत कविता
पानी की धार भी
किनारे से
किश्ती भी लगी हुई है
लेकिन सोच रही हूं कि
नदी के उस पार
जाऊं या न जाऊं
इस पार भी अकेली
मझधार में भी अकेली
उस पार भी अकेली
उस पार चाहे कोई जंगल हो
हो चाहे उपवन
मैं एक फूल सी कोमल
सुकन्या अकेली
सीढ़ियों पर बैठी हूं
यहीं बैठी रहूंगी
धरातल से
जल की सतह पर
पांव न धरूंगी
मैं अपने दिल को
एक पत्थर की शिला सा
मजबूत करूंगी
एक मछली के चिकने बदन सी
मैं कहीं नहीं फिसलूंगी
नहीं जाऊंगी
मैं इस नदी के पार
चाहे इस जीवन में
होती रहे मेरी हार
नहीं करने मुझे
अपने जीवन के साथ
अनावश्यक प्रयोग
नहीं खेलना इसके साथ
एक खिलौने सा
लेना है इसे गंभीरता से
बरतना है संयम
समझाना है मन के भंवर
को
स्थिर करना है इसे
हलचल का कोई भाव न
उत्पन्न किये बिना
खुद के लिए और
दूसरों के लिए
यह जीवन
हंसते खेलते
जीना है मुझे।
मीनल
सुपुत्री श्री प्रमोद कुमार
इंडियन डाईकास्टिंग इंडस्ट्रीज
सासनी गेट, आगरा रोड
अलीगढ़ (उ.प्र.) - 202001