कवितालयबद्ध कविता
जीवन का वो
सतरंगी सा इंद्रधनुष
हो गया आज बदरंग,
हाँ, जीवन के इस चित्र के
गड्डमड्ड से हो गये हैं, सभी रंग
अभी महीना पहले ही
निखर रहे थे, इन हवाओं
और फिजा़ओं में
होली के अद्भुत रंग,
रंग रहा था अंग-अंग
तन-मन में थी, उमड़ रही
एक उन्मत्त तरंग
मगर आज,
ना जाने कैसे,
मगर आज,
जाने कहाँ से गिर पडी़ ये
बरबादी की गाज
जीवन काँप रहा है थर-थर
मृत्यु की आहट है दर-दर
जी रहा हर कोई डर-डर
ढा रहा है कहर सभी पर
कालकूट सा यह जहर
हाँ, समय की चाल बिल्कुल
पड़ रही है मंद,
रीत गया जीवन-प्रसून का
वह अद्भुत मकरंद,
है आज वह जीवंतता
लक्ष्मणरेखा में बंद
और गले को घोटता सा
लगे काल का फंद,
चल रहा पल-पल,
तन-मन में एक
अजब सा द्वंद्व
मृत्यु की इस भीषण
विभीषिका से,
टिमटिमाती सी इस
जीवन-दीपिका से,
जीवन और आजीविका,
पडे़ हुए हैं, आज विवश,
एक दूजे से अलग-थलग,
बाहर साँसों पर पहरा है,
और भीतर, पेट की ज्वाला
यूँ बारंबार रही सुलग
जो एक दूजे के पूरक थे,
आज बने एक दूजे का
जैसे एक विरोधाभास,
खेल रहा है काल हमसे,
" फूट डालो, राज करो " का
एक घिनौना खेल आज
और मानव इस संकट में भी
अपनी-अपनी संकीर्ण सोच
और अंधविश्वास से,
नफरत की दीवार खींच,
खुद को खेमों में बाँट के,
बाँध रहा है,स्वयं को
एक भयंकर कालपाश में
मृत्यु से ना लड़कर, मानव
स्वयं से ही लड़ रहा है
"विनाशकाले विपरीत बुद्धि"
यह कड़वा सच,
यह जड़ चिंतन,
आज हमारी चेतना पर
भारी पड़ रहा है
इस भयंकर काल का
संदेश यही है
उस महाकाल का हमको
बस आदेश यही है
अपने किसी पडौ़सी को
शत्रु नहीं, अपना समझो
इस प्रकृति को तुम अपनी
विजित संपदा नहीं,
बस माँ समझो
इस धरती पर,
कण-कण जग का,
उसका प्रसाद है,
संतोष धन,
लालच प्रमाद है,
इसमें मत उलझो,
किसी और का भाग
हर्गिज मत हड़पो
इस जीवन को जागीर नहीं
मालिक की एक इनायत समझो
द्वारा: सुधीर अधीर