लेखसमीक्षा
पुस्तक का नाम - बूढ़ी काकी
पुस्तक के लेखक - मुंशी प्रेमचंद्र
भाषा - हिन्दी
प्रकाशन - हिन्द पाकेट बुक प्रा. लि ,शाहदरा दिल्ली
पुस्तक की कीमत - ₹ 30
पाठक व समीक्षक - रश्मि शर्मा
वैसे तो मुंशी प्रेमचंद्र कलम के जादूगर माने जाते हैऔर उनकी सभी कहानियाँ हृदयस्पर्शी होते हैं तथा यथार्थता के धरातल लिए हुए होते हैं तथापि उनकी रचना 'बुढ़ी काकी' ने मुझे काफी प्रभावित किया इसका कारण है इसकी उत्कृष्ट पटकथा लेखन।कहानी में बूढ़ी काकी के किरदार ने कहानी को ऐसी रंगत दी कि पाठक कहानी के शुरू से अंत तक अपने आप को इसके हर भाव का स्वाद चखने से रोक नही पाता। काकी की जिव्हा की स्वाद लोलुपता की चरम तृष्णा ही कहानी का मूल आधार है ।अच्छे स्वाद की तृष्णा ही उसके जीवन के आखरी समय की चाह है जिसके समक्ष सभी धन दौलत की चाहत कोई मायने नही रखती। उसे इस बात का दुख तो जरूर है कि उसके पति ने उसकी सारी संपत्ति अपने भतीजे के नाम कर दी लेकिन अच्छा स्वाद भरा खाना खाने की चाहत उसे इस गम से दूर ले जाती है ।इस कहानी का अंत इतना मार्मिक और हृदय विदारक है की किसी भी पाठक को उस पल में डूब जाने से नहीं रोक पाती।
इस कहानी में लाडली जो कि काकी की सबसे छोटी पोती है उसका काकी से गहरा लगाव देखते ही बनता है । उसका अपनी माँ से खाने की चीजे छुपाकर काकी को देना यहाँ तक की खुद का भी खाना काकी को खिलाना उसकी भलमनसाहत को दर्शाता है।
कहानी के प्रमुख पात्र -
बूढ़ी काकी, उनके भतीजे पं. बुद्धिराम, बहू रमा,और उनके बच्चे जिसमें सबसे छोटी बेटी लाडली है जो कि काकी के दिल के सबसे करीब है।
अद्भुत संवाद शैली - किसी भी कहानी की रीढ़ की हड्डी उसमें प्रयुक्त संवाद शैली होती है ।इस बात को बूढ़ी काकी की कहानी की संवाद शैली ने बखूबी चरितार्थ किया जिसमें कृतघ्नता, लालच, घृणा, अत्याचार, स्वार्थपन,,दया,पश्चाताप व क्षमा सभी अपने उत्कृष्ट रूप में परिलक्षित होते हैं।जैसे - फूल तो हम घर में भी सूँघ सकते हैं परंतु वाटिका में कुछ और ही बात होती है ।
"दिन भर ना खाती होती तो ना जाने किस हांडी में मुंह डालती "
"काकी को कोई भरपेट पूड़ियां क्यों नहीं देता? क्या मेहमान सब के सब खा जाएंगे?"
" आज सैकड़ों मनुष्यों ने भोजन पाया परंतु जिनकी बदौलत हजारों रुपए खाएं उसे इस उत्सव में भी भरपेट भोजन ना दे सकी
दिल को छू गयी ये बातें - कुछ लाइने तो लाजवाब लगीं ।जैसे -
'परंतु बुढ़ापा तृष्णा रोग का अंतिम समय है जब संपूर्ण इच्छाएं एक ही केंद्र पर आ जाती हैं।'
'संतोष सेतु जब टूट जाता है तब इच्छा का बहाव अपरिमित हो जाता है ।'
'आकाश पर तारों की थाल सजे हुए थे और उन पर बैठे हुए देवगण स्वर्गीय पदार्थ सजा रहे थे परंतु उनमें किसी को वह परमानंद प्राप्त नहीं हुआ जो बूढ़ी काकी को अपने सम्मुख थाल देखकर प्राप्त हुआ था ।'
' बुढ़ापा बहुधा बचपन का पुरागमन हुआ करता है'।
समापन - प्रेमचंद की यह कहानी 1918 में उर्दू में लिखी गई तथा उर्दू पत्रिका तहजीब़े निसवाँ में छपी ।बाद में यही कहानी हिंदी में 1921 में शारदा नामक हिंदी पत्रिका में छपी थी इस कहानी को हर रूप से देखें तो यह अपनी विधा में सर्वश्रेष्ठ का परिचय देती है ।इसको पढ़कर लेखक के कलम की ताकत का बखूबी एहसास होता है जो पाठकों को शुरू से अंत तक अपने आकर्षण में बांधे की क्षमता रखता है।
बहुत ही सुंदर समीक्षा लिखी है आपने वाकई यह पुस्तक पढ़ने योग्य है।
धन्यवाद 🙏🙏