कहानीलघुकथा
शीर्षक,,,*अभी नहीं तो कभी नहीं*
उदास प्रकृति निरन्तर आँसू बहा रही थी। वह तो ठहरी भोग्या, स्वयं कुछ करने में असमर्थ। वह स्वयं लहलहाएगी तभी तो प्राणवायु देकर जहरीली गैस का विषपान करेंगी। जो मानव कभी उसकी पूजा करता था, वही बैरी बन बैठा। क्या नहीं किया,,काटा, रौंधा, जैसा चाहा उपयोग किया। प्रदूषण से पीड़ित मानव याचना करता है, " हमने तुझे बहुत यातनाएँ दी।उसका फल भी हमें मिला। अब हमें क्षमा करो माँ। "
प्रकृति बोली," मैं नहीं हूँ इतनी निष्ठुर। माँ के सारे कर्तव्य निभाती आई हूँ।पाश्चात्य संस्कृति के अनुसरण से तुम ही संस्कार भूल गए हो। जब अपनी जन्मदात्री के नहीं हुए तो मैं ठहरी सौतेली।"
सारे मानव हाथ जोड़नेज् लगे," माँ हो न, माफ़ कर दो। बस आज से ही हम अपनी मातृभूमि को हरियाली से सजाएंगे। हमें नहीं ढोना ऑक्सीजन सिलेंडर का बोझ पीठ पर। अभी नहीं तो कभी नहीं।"
सरला मेहता
इंदौर