कवितालयबद्ध कविता
काल की आँधी प्रचंडहो रहा विश्वास
अब तो जीवन का
पल छिन,
पल छिन
खंड-खंड
मानव की अक्षय लिप्सा का,
माँ प्रकृति के आँचल में सिमटे
कण-कण की क्षण-क्षण हिंसा का
मिल रहा है आज दंड
हमने माँ को
सोने का अंडा देती
एक मुर्गी समझा
और चीर दिया
अपने स्वारथ के हाथों की
कठपुतली समझा,
बन दुःशासन फिर से
उसका हर चीर लिया
अब माँ ने हम सबके शोणित से
केश बाँधने की सौगंध खा ली है,
इसीलिए धरती का आँचल
हो रहा यूँ खाली है
मिटती जीवन की रंगोली,
बदरंगी सी हर एक होली,
सूनी हर एक ईद
हुआ एकाकी हर नवरात्र,
कृपण माँ की
कृपा का अक्षयपात्र
धुँधलाई हर दीवाली है
इस तांडव में भी सबको
अपना स्वारथ सूझ रहा
माली नैया को छोड़
बीच मँझधार में,
परमारथ भूल रहा
सत्तामद में चूर,
और-और पाने की
चाहत से मजबूर,
तालियों बीच
हुआ महफूज है
व्यूह और प्रतिव्यूह में
यूँ व्यस्त हुआ,
संवेदना से
दूर-दूर है
उसको क्या चिंता,
भागने को क्यों, कब, कैसे
मजदूर हुआ मजबूर है
जल रहा है रोम,
बजाता बंसी नीरो,
जिसे बिठाया
सिर-आँखों पर,
समझा हीरो,
मगर अंत में मिल पाया
जीरो, बस जीरो
बस अपनी-अपनी ढपली है
और अपना-अपना राग है
अपने-अपने दायरे में
बँट रहा समाज है
मौत ही क्या कुछ कम थी,
लगा ली नफरत की यह आग है
आओ मिलकर लडें
आज हर भूख से,
आओ मिलकर
बाहर निकलें
हम अपनी हर फूट से
मृत्यु ने जीवन को अवसर
क्या कभी दिया है ?
जीवन ने ही उसमें खुद
अपना पथ अक्सर ढूँढ लिया है
ढूँढ आपदा में अवसर,
कवच एकता का पहनकर,
साहस को ढाल बनाकर हम
यह युद्ध जीतें
चैतन्यदीप से हर लें ये तम,
इस कालरात्रि के
भयावह कालपाश से
यह युद्ध जीतें
माँ स्वाहा, स्वधा, धात्री और
कालरात्रि के प्रताप से,
धरें संकल्प अटल,
बनकर हम निश्चल
आज इस संताप में
इस जड़ता के दानव से,
यह युद्ध हम,
बन बुद्ध, जीतें
द्वारा: सुधीर अधीर