कवितालयबद्ध कविता
#महल और झोपड़ी (प्रतियोगिता हेतु)
बड़े शहर की बड़ी सड़क पर
कितने चेहरे दिख जाते हैं,
शहर है या है कोई मंडी,
खड़े खड़े सब बिक जाते हैं,
इन रीते चेहरों के पीछे,
कुछ नहीं है, कुछ नहीं है,
कुछ नहीं, सचमुच नहीं है!
यहां नींद सपनों से डरकर,
करवट करवट रोती है,
आंखों की कोरों से झरकर,
तकिए पर ही सोती है
अब खाली पलकों के पीछे,
कुछ नहीं है, कुछ नहीं है,
कुछ नहीं, सचमुच नहीं है!
भूख किसी की मरी है शायद,
पेट उसी का रो रहा है,
रूखे हांथों की किस्मत में,
जो लिखा था, हो रहा है,
अब उसकी मुठ्ठी में बाकी,
कुछ नहीं है, कुछ नहीं है,
कुछ नहीं, सचमुच नहीं है!
लौट चले हैं भारी कदमों,
वो जो उड़ते आए थे,
खेत झोपड़ी बेच बाच,
एक महल देखने आए थे,
जिसके दरवाजों के पीछे,
कुछ नहीं है, कुछ नहीं है,
कुछ नहीं, सचमुच नहीं है!!