Help Videos
About Us
Terms and Condition
Privacy Policy
अखबार - Sudhir Kumar (Sahitya Arpan)

कवितालयबद्ध कविता

अखबार

  • 171
  • 13 Min Read

धूल-धक्कड़ की मोटी सी
एक चादर ओढ़कर
इस बेरुखी के दौर में
खुद के वजू़द को सिकोड़कर,
अपने ही बस, अपने ही
ओर यूँ मुँह मोड़कर

अलमारी की बंद 
कोठरी की घुटन में 
घुटते से
बदले हुए जमाने के 
निर्मम हाथों यूँ
अनायास ही लुटते से

इस सूचना-क्रांति के युग में,
इस तकनीकी नागपाश में
बेबस होकर बँधे हुए,
इस शरशय्या पर एक आहत
भीष्मकाय से लदे हुए

अकालमृत्यु को लाचार
वे किताबें, पत्रिकायें, 
और ये सब तुडे़-मुडे़, 
सिकुडे़ से अखबार
सबकी उपेक्षा झेलने को
होते यूँ लाचार

हाँ, समेटकर लाते थे जो
हर रोज एक 
नयी-नयी सी सुबह का 
एक खुशनुमा अहसास
और बिखेर देते थे 
एक भीनी-भीनी खुशबू
अपने आस-पास

पूरी दुनिया को लाकर जैसे
पास खडी़ सी कर देते थे
देखते ही देखते 
बडी़, बहुत ही बडी़ सी कर देते थे
सँकरे से उस ड्राइंग-रूम की 
उस छोटी सी जगह को

और बहा देते थे जैसे 
अहसासों के आँगन में
ताजगी का झोंका बन
मुस्काने का मौका बन,
अनजानी सी खुशियों की एक
अनचीन्ही सी वजह को

हाँ, लगती थी जिसके बिना
चाय सुबह की कुछ अधूरी,
रह जाते थे फीके-फीके
धरे नाश्ते की प्लेट में
खट्टे-मीठे, नमकीन, तीखे
गर्मा-गर्म पकौडे़ और
मोयनदार कचौड़ी, पूरी

हाँ, ये हरफन मौला अखबार
वे खबरों के अंबार, 
हर इतवार को करते गुलजार,
हर बोरियत को तार-तार
एक बेशकीमती टाइम-पास,
सचमुच कितना बिंदास

और कभी अखबार में
सिमटा वो पल
बन जाता था संसद पटल,
घर के हर एक 
कटु सत्य का मौन साक्षी,
जब अपनी मृगनयनी या मीनाक्षी

बन अटल की तरह अटल,
बन विपक्षी दल की एक 
आवाज प्रबल,
हाँ, संसद का अभिन्न अंग
उस मदहोशी को करता भंग,
मैडम का वह स्वर मुखर,
घर की सभी जरूरतों का
बनकर झर-झर बहता निर्झर

" सुबह-सुबह ही बैठ गये 
इसको लेकर
घर की हर जिम्मेदारी से
जैसे त्यागपत्र सा देकर
आ जाता है रोज यह
जैसे मेरी सौत बनकर
मेरी खुशियों की मौत बनकर,
लेने मुझसे जैसे कोई इंतकाम
करने मेरा काम तमाम,
तहस-नहस करने को
सारे इंतजाम,

जानते हैं ? 
याद है कुछ ?
बाकी पडे़ हैं कितने काम ?
कुछ उन पर भी ध्यान दो
इस पर लगाओ पूर्ण विराम "

और मेरा मुँह खुलने से पहले ही,
आधी-अधूरी खबरों की
गुत्थी सुलझने से पहले ही,
उस विश्वरूप अखबार पर
वे नर्म नाजुक हथेलियाँ
भस्मासुर सी बन जाती थी,
उस काली की भृकुटि तन जाती थी
और यह पति नाम का भोला प्राणी
बनकर शिव सा औघड़ दानी
उसकी हर एक इच्छा को
"तथास्तु" कह देता था
घर के सागर-मंथन से
उपजे उस विष को
हँसते-हँसते सह लेता था

हाँ, किचन के मसालेदार
व्यंजनों के रंग-गंध से
हर इतवार का अखबार
इंद्रधनुष सा सतरंगी बन जाता था
और उस सागर-मंथन का
अमृत सा घर में छलककर
कण-कण में रच-बस जाता था

उन मधुर क्षणों की साक्षी,
एक बालमन सी पाक-साफ सी
नर्म नाजुक उँगलियों के
कुछ लाल-पीले से निशान
भूली बिसरी सी यादों में
सिमटे-सिमटे से वे जहान

आज कुछ अलमारियों में
कैद पडे़ हैं
हाँ, ना जाने कितने-कितने अहसासों को
आज ये इस कंचनमृग के सम्मोहन 
हाईटेक मृगतृष्णा के
ये अनंत से कंटकवन 
यूँ घेर खडे़ हैं

द्वारा: सुधीर अधीर

logo.jpeg
user-image
प्रपोजल
image-20150525-32548-gh8cjz_1599421114.jpg
माँ
IMG_20201102_190343_1604679424.jpg
वो चांद आज आना
IMG-20190417-WA0013jpg.0_1604581102.jpg
तन्हा हैं 'बशर' हम अकेले
1663935559293_1726911932.jpg
ये ज़िन्दगी के रेले
1663935559293_1726912622.jpg