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दोराहे पर खडी़ जिँदगी - Sudhir Kumar (Sahitya Arpan)

कहानीसामाजिकलघुकथा

दोराहे पर खडी़ जिँदगी

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दोराहे पर खडी़ जिंदगो

आज मैं एक आवश्यक कार्यवश कहीं जा रहा था. अचानक एक दृश्य देखकर मेरे कदम ठिठक गये.

एक महिला और उसकी बेटी जो देखने में किसी विपन्न वर्ग से संबंद्ध लग रही थी, सड़क पर बिखरे चावल अंजुलि से बटोरकर अपने थैले में डाल रही थी. पूछने पर बताया कि उनकी थैली फट गई है इसलिए चावल बिखर गये. लग रहा था, थैली नहीं बल्कि तार-तार होती उनकी जिंदगी की चादर फट गई थी जिसे वे फिर से सिलने का प्रयास कर रही थी क्योंकि नयी चादर खरीदने की उनकी सामर्थ्य नहीं थी.

चारों ओर सड़क के किनारे आम तौर पर रहने वाली गंदगी, धूल और ऊपर से यह कोरोना काल का काला साया, इन सबको ठेंगा सा दिखा रही थी उनकी यह विवशता. मेरा हृदय विदीर्ण हो गया. उसको कोरोना से बचने के लिए चावल छोड़कर जाने को किस मुँह से सलाह देता. उसकी विवशता उसके चेहरे से झलकती हुई इस तथ्य का संकेत दे रही थी कि अवश्य ही उसके घर पर आकर पसरी पडी़ बच्चों की भूख उसे ये कुछ मुठ्ठी चावल यूँ ही छोड़कर आने की अनुमति नहीं दे रही है. दुर्भाग्यवश उस समय मेरी जेब भी मुझे इतना उदार होने का अवसर नहीं दे सकी कि मैं उसे कुछ रुपये देकर वे चावल वहीं छोड़कर और खरीदने के लिए कह देता. संभवतः स्वार्थ या कृपणता भी इसके मूल में रही हो. केवल इतना ही कह पाया कि घर जाकर अच्छी तरह धोकर सुखा लेना.

आज हम सबकी जिंदगी एक दोराहे पर खडी़ है. मुझे याद आती हैं गोस्वामी जी की पंक्ति, " भइ गति साँप छछूँदर केरी " . ना उगलते बनता है और ना ही निगलते. आज भूख और महाव्याधि एक दूजे को चुनौती देते हुए से लगते हैं और इन दो पाटों के बीच हमारा अस्तित्व पिसता जा रहा है. एक ओर कुआँ और दूसरी ओर खाई वाली स्थिति ने आज हमें त्रिशंकु सा बनाकर अधर में लटका दिया है और हम सभी इस दोराहे पर अपनी-अपनी प्राथमिकता समझते हुए अपनी-अपनी डगर चुनकर अपना-अपना सफर तय कर रहे हैं.

उस समय भी एक जिंदगी सड़क पर बिखरे चावलों में स्वयं को खोज रही थी. एक और जिंदगी यानी मैं राशन की शुद्धि का भाषण देकर आगे बढ़ गया. कुछ और जिंदगियाँ अपनी-अपनी गति से अपने-अपने वाहनों पर सवार, " सब कुछ चलता है, इसी का नाम जिंदगी है. हम क्या कर भी क्या सकते हैं. " जैसा कोई भाव मन में लिए आगे बढ़ती जा रही थी. लगता है, हम सब अपने जमीर को पीछे छोड़कर बहुत आगे निकल आये हैं. कभी-कभाक भूले-बिसरे से, दबे पाँव संवेदना की एक आध तरंग जरूर हमें आकर झकझोर जाती है और फिर जिंदगी वही ढाक के तीन पात जैसी हो जाती है.

" ज्यों की त्यों धर दीन्हीं चदरिया ", यह आध्यात्मिक भाव कुछ दूसरे ही रूप में अर्थ बदलकर हमें यथास्थितिवादी बनाकर अपने तंग दायरे में कैद कर देता है और हम आगे बढ़ते जाते हैं मगर "क्या सही अर्थों में आगे बढ़ते हैं", यह प्रश्न अपना उत्तर कभी सड़क पर बिखरे उन चावलों में और कभी उन दो चेहरों की पर छाई विवशता में खोजता हुआ सा लगता है.


द्वारा : सुधीर अधीर

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शिवम राव मणि

शिवम राव मणि 3 years ago

विवशता इंसान को जितना मजबूर बनाती है उतनी ही ताकत भी देती है।

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