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कारवाँ गुज़र गया - Sudhir Kumar (Sahitya Arpan)

लेखआलेख

कारवाँ गुज़र गया

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  • 21 Min Read

" आया है मुझे फिर याद वो जालिम,
गुजरा जमाना बचपन का
हाये रे अकेले छोड़ के जाना,
और ना बचपन का "

स्व. मुकेश का यह कालजयी गीत आज मैं, कोरोना के मनहूस साये से बाहर निकलने के लिए, सुन रहा था. इस घुटन में पुरवाई के खुशनुमा झोंके की तरह अहसासों के झरोखे से, मन की बंद कोठरी में उतार रहा था मगर यह तो मुझे ही उडाकर ले गया इस पचपन से, उस बचपन में.

जी हाँ, चार साल से मैं पचपन में ही अटका हुआ हूँ. वैसै, मेरा जन्मदिन उनतीस फरवरी नहीं है, जो चार साल में एक बार आता है. पचपन में सिमटने के पीछे केवल बचपन से तुकबंदी का आनंदपूर्ण लालच है जो कवि होने का भ्रम बनाये रखता है. अब तो आयु छिपाने की सब हेल्पलाइन भी खत्म हो चुकी है. वैसे भी, यह तो केवल मातृशक्ति का एकाधिकार है. मेरे सिर पर आयु की ममता का यह श्वेत आँचल और जीवन-संध्या की ओर अग्रसर शरीर का भूगोल स्वयं ही पूरा इतिहास समझा देता है और इस शुद्ध चाँदी में मिलावट की कालिख मिलाने का मुझे कोई शौंक नहीं है. वैसै भी चाँदी चाँद से अधिक उपयोगी है. जब चाहो छू लो. और चाँद ? अरे, उस चाँद को छूने के लिए तो ना जाने कितने ताम-झाम जुटाने पड़ते हैं. अरे, चाँदी से एक मात्रा ("ई") कम रखने वाले उस चाँद को अनछुआ ही छोड़ दें, बच्चों का मामा बनाकर. बार- बार उसके लिए मामू क्यों बनें जो कभी बडा़, कभी छोटा होता रहता है, परछाई की तरह और कभी अमावस में अंतर्ध्यान हो जाता है, " मि. इंडिया " के अनिल कपूर की तरह.

हाँ, तो, आओ फिर मुझे पचपन से बाहर आकर बचपन में लौट जाने दो. अरे भाई, इस उम्र के दोराहे पर आकर रास्ता भटक जाना स्वाभाविक है. मेहरबानी करके याद दिलाते रहा करो. हाँ तो, ना जाने वो कौन सा चुंबक है, जिसका " वो दौड़ के कहना, आ छू ले " मुझे मजबूर करता जा रहा है, पीछे दौड़कर उसे छूने के लिए. वैसे, बीते कल को सिर्फ यादों की छडी़ से ही छू सकते हैं ,और वह भी कुछ लमहों के लिए, अन्यथा संतुलन खोकर गिर भी सकते हैं. जी हाँ, आगे बढ़ना ही जीवन का प्रमाण है मगर कुछ मोड़ मुड़ते समय अतीत नजरों के सामने आकर खडा़ हो ही जाता है. यादों की चादर ना जाने कब,कहाँ,कैसे किसी ना किसी मोड़ पर आकर सिकुड़ ही जाती है और दो बूँद बन, पलकों पर बिखरकर निचुड़ ही जाती हैं.

जी हाँ, चोर चोरी से जाये, हेराफेरी से ना जाये. यह तुकबंदी जी का जंजाल बन गयी. कमबख्त, गद्य में भी बिन बुलाये मेहमान की तरह, कमर्शियल ब्रेक सा बनकर आ धमकती है मगर ये बचपन बिन बुलाया मेहमान नहीं है, इसके लिए किसी मुकेश या रफी को सुनना पड़ता है, किसी गुलजार या जावेद को अहसासों में बसाकर गुनगुनाना पड़ता है.

लगता है, बचपन तक आज पहुँच ही नहीं पाऊगा. आपने भी नहीं चेताया. लगता है,आप भी शायद बचपन में लौट गये हैं. खो गये ना उन टेढी़-मेढी़ पगडंडियों में ?उलझकर रह गये ना ? कंबख्त, ये बचपन होता ही ऐसा है. हम जितने बूढे़ होते जाते है ये उतना ही पास आकर लुभाता है एक मृगतृष्णा बनकर. लगता है जीवन एक भूलभुलैया है जो हमें जाने-अनजाने इन आँखों पर विस्मृति की पट्टी बाँधकर और मन की आँखों पर स्मृति का दूरदर्शक लगाकर बार- बार घुमाकर पीछे, बहुत पीछे ले जाती है.

मेरे साथ भी अक्सर ऐसा ही खूबसूरत, खुशनुमा, भटकाने वाला, हसीन इत्तफाक होता रहता है और कान में आकर गुनगुनाता है, ना जाने कब, कौन,कहाँ से, यूँ ही आकर, चोरी-चोरी, चुपके-चुपके, दबे पाँव, कुछ कदम बढा़कर, मन के द्वारे दस्तक देता बार-बार यूँ आ-आकर,

" बचपन के दिन भुला ना देना,
आज हँसा, कल रुला ना देना "

हाँ, यादों के पंखों पर कभी मैं उनके पास और कभी वो मेरे पास आते-जाते रहते हैं यह एकपक्षीय प्रेम नहीं है. हम मिलते हैं, खुशनुमा अहसासों के सरमाये को समेटकर, सचमुच एक बेशकीमती सौगात कल के साये में लपेटकर. यह भेंट देने का काम तो उन्हीं का है. मेरे पास क्या है जो रिटर्न गिफ्ट बनाकर पेश कर सकूँ ?अपना तो एक ही फंडा है,

" आपके पास मैं आऊँगा तो क्या खिलायेंगे
और अगर खुद आयेंगे तो क्या-क्या लेकर आयेंगे"



हम तो कल की आपाधापी के इस "वन वे ट्रैफिक"
में कुछ इस प्रकार उलझकर रह गये हैं कि जिंदगी सिर्फ पूनम की तरह कभी-कभाक भूले-भटके कोई खुशनुमा तनहाई दे जाती है, एक बोलती खामोशी का आलम और फिर,

"दिल ढूँढता है फिर वही, फुरसत के रात दिन ".

वरना जीवन तो बस एक ही धुन पर गाता और हमें बजाता रहता है, और ना जाने कितने खोये हुए मौके, वक्त की तेज फील्डिंग के चलते, कितने गँवाये हुए चौके, कितने छुटे हुए कैच और इस तरह ना जाने कितने हारे हुए जिंदगी के मैच बार-बार राह रोककर खडे़ हो जाते हैं, नीरज की ये लाइनें दोहराते हुए,

" स्वपन झरे फूल से, गीत चुभे शूल से,
लुट गये सिंगार सभी, बाग के बबूल से,
और हम खडे़- खडे़ बहार देखते रहे
कारवाँ गुजर गया, बहार देखते रहे "



द्वारा : सुधीर अधीर

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Kamlesh  Vajpeyi

Kamlesh Vajpeyi 4 years ago

आपने सही कहा..! गुजरे जमाने का एक एक लम्हा बड़ी शिद्दत से याद आता है.

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