कवितालयबद्ध कविता
एक तू ही तो आजाद यहां, मैं कैद में हूं मजबूर हूं
यहां सब के सब मालिक हैं, मैं अकेला ही मजदूर हूं
तेरे हाथों में लगी मिट्टी मैं ही तो हूं
बिना पते की गुमशुदा चिट्ठी मैं ही तो हूं
तेरे साफ़ पैरो में धूल मैं ही तो हूँ
बेगैरतो में मकबूल मैं ही तो हूं
दिहाड़ी बहुत कम है मेरी पर मेरे बच्चों के लिए भरपूर हूं
यहां सब के सब मालिक हैं मैं अकेला ही मजदूर हूं
तेरे घर की दीवारों में पसीना मेरा भी है
तेरी ऊंची इमारतों में चंद ईटों का मदीना मेरा भी है
तेरे दफ्तर को जाती सड़क मैंने बनाई है
सिर्फ पानी पी पीकर न जाने कितनी बार भूख मिटाई है
एक अनसुनी आवाज हूं मैं निराशाओं का नूर हूं
यहां सब के सब मालिक हैं मैं अकेला ही मजदूर हूं
मजदूरी ने हाथों की लकीरें मिटा दी है
पर नीली स्याही पहली उंगली पर अब भी बाकी है
ऐ सियासत दारो पैसों की भूख नहीं है मुझे
मैं तुझे याद आ जाऊं बस इतना ही काफी है
हमारे बच्चों की बेबस आंखें तुझे देखती क्यों नहीं
रोती बिलखती तमाम बातें तुझे देखती क्यों नहीं
मैं तेरे घर का बचा हुआ खाना हूं
बहुत बार पहना हुआ कपड़ा पुराना हूं
मेरे छुए हुए बर्तन अलग रख दिए जाते हैं
मैं लाचारी गरीबी बेबसी का ठिकाना हूं
दरख़्त दीवारों से तेरे पास तो हूं
फिर भी तुझसे कितना दूर हूं
यहां सब के सब मालिक हैं मैं अकेला ही मजदूर हूं