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मैं मजदूर हूँ - Ashu Gaur (Sahitya Arpan)

कवितालयबद्ध कविता

मैं मजदूर हूँ

  • 196
  • 6 Min Read

एक तू ही तो आजाद यहां, मैं कैद में हूं मजबूर हूं
यहां सब के सब मालिक हैं, मैं अकेला ही मजदूर हूं

तेरे हाथों में लगी मिट्टी मैं ही तो हूं
बिना पते की गुमशुदा चिट्ठी मैं ही तो हूं
तेरे साफ़ पैरो में धूल मैं ही तो हूँ
बेगैरतो में मकबूल मैं ही तो हूं
दिहाड़ी बहुत कम है मेरी पर मेरे बच्चों के लिए भरपूर हूं
यहां सब के सब मालिक हैं मैं अकेला ही मजदूर हूं

तेरे घर की दीवारों में पसीना मेरा भी है
तेरी ऊंची इमारतों में चंद ईटों का मदीना मेरा भी है
तेरे दफ्तर को जाती सड़क मैंने बनाई है
सिर्फ पानी पी पीकर न जाने कितनी बार भूख मिटाई है
एक अनसुनी आवाज हूं मैं निराशाओं का नूर हूं
यहां सब के सब मालिक हैं मैं अकेला ही मजदूर हूं

मजदूरी ने हाथों की लकीरें मिटा दी है
पर नीली स्याही पहली उंगली पर अब भी बाकी है
ऐ सियासत दारो पैसों की भूख नहीं है मुझे
मैं तुझे याद आ जाऊं बस इतना ही काफी है
हमारे बच्चों की बेबस आंखें तुझे देखती क्यों नहीं
रोती बिलखती तमाम बातें तुझे देखती क्यों नहीं

मैं तेरे घर का बचा हुआ खाना हूं
बहुत बार पहना हुआ कपड़ा पुराना हूं
मेरे छुए हुए बर्तन अलग रख दिए जाते हैं
मैं लाचारी गरीबी बेबसी का ठिकाना हूं
दरख़्त दीवारों से तेरे पास तो हूं
फिर भी तुझसे कितना दूर हूं
यहां सब के सब मालिक हैं मैं अकेला ही मजदूर हूं

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डॉ स्वाति जैन

डॉ स्वाति जैन 4 years ago

बहुत सुंदर व अर्थपूर्ण,

Ashu Gaur3 years ago

Thnx a lot

नेहा शर्मा

नेहा शर्मा 4 years ago

बहुत खूब

Ashu Gaur4 years ago

Thnkuuuu

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