कवितागजल
ग़ज़लकार- डा. शिव प्रसाद तिवारी "रहबर क़बीरज़ादा"
ग़ज़ल
तितली के परों पे ग़ज़ल लिखने का चलन आज भी है।
फूलों के रंगों से निकलती सी ग़ज़ल आज भी है।
आप गुलशन में सुबह जाओ जो टहलने के लिये,
परिंदों की चहक में बसी रहती ग़ज़ल आज भी है।
चाँदनी रातों को छतों पर तारों की निगहबानी में,
माशूक़ की बाहों में मचलती सी ग़ज़ल आज भी है।
कश्ती की छपाकों में माझी की हइया हइया में,
बनती संवरती गीत गाती सी ग़ज़ल आज भी है।
बाँसुरी के छेदों से निकलते हुये सुर बोलें जब,
तानपूरे के तारों में झनझनाती ग़ज़ल आज भी है।
बच्चे तैयार हो रोते हंसते जाते हैं जब मदरसे को,
तख़्तियों पे रोज बनती बिगड़ती ग़ज़ल आज भी है।
माँ की गोदी से छुप के झाँकते नन्हें मुन्नेे सपने,
रहबर उन सपनों की खुशबू में ग़ज़ल आज भी है।
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