कहानीलघुकथा
#शीर्षक
हवेली की ठकुराइन...
बड़का गांव के ठाकुरों की बड़ी बहू राजलक्ष्मी यद्यपि कि निसन्तान है ,
फिर भी झिझक से भरी पूरे गांव में घूंघट में घिरी नहीं रहती है वरन् पुरुषार्थ से भरी पूरी हवेली की मजबूत आधार स्तम्भ है ।
वह बेबाक और बेखौफ है ,
किसी की निजी जिन्दगी में ताक - झांक से उसे सख्त परहेज है ।
और ना अपनी जिन्दगी में किसी की दखलंदाजी उसे पसंद है ।
उसकी दिनचर्या प्रतिदिन गंगा स्नान के पश्चात मंदिर दर्शन करने के बाद ही आरंभ होती है ।
कुछ दिनों से राजलक्ष्मी मंदिर आने और जाने के रास्ते में लगभग चौदह से पन्द्रह साल के लम्बे दुबले-पतले गौर वर्ण के किशोर को अपने-आप में खोए हुए मंदिर की सीढियों पर बैठे हुए देखती है।
आस पास के लोग उसे झक्की समझ कर अपने- अपने रास्ते हो लेते ।
लेकिन राजलक्ष्मी मुंह मोड़ नहीं पाती है।
उनकी ममता प्यासी है ।
अस्त-व्यस्त कपड़ो में बैठा वह उसे अपनी ओर खींचता है ।
अपने आप से बातें करते उस किशोर की आँखों का सूनापन उसे निरंतर कचोटता है ।
पता करने पर मालूम चला पास ही के श्रमिक घर का अतिथि है किशोर ।
नक्सली हमले में उसके अपने गांव वाला घर उजड़ गया है ।
और किसी ने उस पर रहम कर उसे उसके मामा के घर पंहुचा दिया है।
उसका प्रभावी व्यक्तित्व और निरीह चेहरा राजलक्ष्मी को आकर्षित करता है।
उस दिन प्रातः मंदिर से निकल कर न जाने किस मोहवश वे उसके पास जा कर बैठ गई और उसकी हथेलियों पर प्रसाद के केले रख ध्यान से कान लगा कर उसकी बातें सुनने लगी ,
कैलाश ने कातर नजरों से उन्हें देखा फिर प्रसाद के केले छील कर जल्दी-जल्दी खाने लगा शायद भूख लगी थी।
साथ ही धीमे- धीमें बुदबुदा भी रहा है ।
" बाबा गए ,मां गई , दीदी गई , बच गया सिर्फ कैलाश "
" खेत गये । आम कटहल के बगान गए । केले की गाछ गए । मेले गए ।
क्या कैलाश भी चला गया " ?
कह कर वह जोर से रोने लगा
" नहीं कैलाश नहीं गया "।
" मैं तो अपने मामा के घर आ गया हूँ ।
लेकिन एक अलग ही तरह का निर्वासन भोग रहा हूँ ।
यंहा सब कुछ है पर ... कुछ ऐसा भी है जिसे मैं भोग रहा हूँ एक अलगाव जैसे सब कुछ होते हुए भी सपाट खालीपन ...का अहसास दिलाता रहता है मुझे ।
राजलक्ष्मी की आँखों से उसकी व्यथा कथा सुन अविरल अश्रुओं की धारा बह रही है ।
" अपने गांव में मैं दसवीं कक्षा में पढ़ता था और बहुत अच्छी बंसी भी बजाता दूर - दूर तक मेरे बंसी बजाने का मुकाबला नहीं था " ।
यह सब सुन कर द्रवित हो गईराजलक्ष्मी ,
न जाने उसे क्या सूझी ,
उसने कैलाश के हांथ पकड़े और ले कर हवेली की ओर चल पड़ी
फिर क्या था ?
हवेली में बवंडर तो होना ही था ।
घर के बेटे तो अक्सर ऐसा करते ही हैं लेकिन किसी बहू ने ऐसा पहली बार किया है ?
ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था ।
और कैलाश ,
एक अजीब सी घबराहट और अकेलापन उस पर पसर गया है
यों तो वह पड़ोसी के नाते राजलक्ष्मी के घर रह रहा था ।
लेकिन राजलक्ष्मी उसकी देखभाल निरन्तर अपने पुत्र की तरह करती और बीच - बीच में उसे कहती जाती ,
" तुमनें जो लड़ाई जिन्दगी में लड़ी है वह शायद कोई बड़ा हिम्मत वाला भी नहीं कर पाता तुम्हें हारना नहीं है बल्कि सभी प्रकार की अनहोनी से लड़ना है " ।
" अब मैं तुम्हारे साथ हूं "
, उसकी हिम्मत बंधाती बातें सुनते - सुनते कैलाश फिर से बचपन के उन रास्तों पर पड़ा जिनपर कभी बाबा की उंगली पकड़ मीलों चला करता था ।
राजलक्ष्मी ने उसके लिए बांसुरी मगंवा दी है ।
जब कभी मां बाबा की याद में उस पर वीरानी और अजीब सा सन्नाटा छा जाता तो वह घंटों मुरली बजाता और बजाता ही चला जाता ।
यह राजलक्ष्मी का पुरूषार्थ और उसकी मेहनत का फल ही था कि जल्द ही कैलाश ने अपनी कमजोरियों पर काबू पा लिया ।
राजलक्ष्मी के पुरुषार्थ से भरे प्यार और स्नेह से संचित कैलाश ने बारहंवी की परीक्षा भी पास कर ली ।
राजलक्ष्मी उसे बाहर भेज उच्च शिक्षा दिलवाना चाहती हैलेकिन लाख समझाने पर भी कैलाश उसकी ममता भरे आँचल को त्यागने पर राजी ना हुआ ।
उसकी परम इच्छा है ,
" यहीं गांव में ही छोटी- मोटी नौकरी ढ़ूंढ़ राजलक्ष्मी की सेवा करने की "
नहीं उड़ना है उसे अनंत आकाश में कि अपने नीड़ का रास्ता ही भूल जाए ।
सीमा वर्मा
बेहतरीन राजलक्ष्मी जैसी औरतें अपने देश में भी हो जाये तो किसी कैलाश को अनाथ आश्रम या कोई दुख न भोगना पड़े।
दिल से धन्यवाद नेहा जी