कवितागजल
अरे रिश्ते आजकल बाज़ारी हो गए हैं
सँस्कार हल्के बच्चों के बस्ते भारी हो गए हैं,
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अस्मतों से खेलना आम सा लगने लगा है
क़दम दर क़दम कितने जुआरी हो गए हैं,
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मज़हब की आड़ में गुनाहों से सन गए हम
भेड़िये की खाल में छिपे पुजारी हो गए हैं,
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नफ़रत की बादशाहत चहूँ ओर है फैली
सच के लबादे अब चारदीवारी हो गए हैं,
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कशमकश में है "दीप" जहाँ में क्या हो रहा ये
स्वार्थों की कस्ती पे सब सवारी हो गए हैं !!
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कुलदीप दहिया "मरजाणा दीप"