कवितालयबद्ध कविता
कभी बेशक जिये होते आकाश में
तो खुलकर जिये होते
जीने की आरज़ू पर पहली बून्द लिए होते
तो भीग जाते खुशियों की झामझोर में
उन्हें बादलों से छीन लिए होते
काली घटाओं का गुरूर तोड़
उनसे भी गरज छीन लिए होते
फिर भूल जाते हवाओं का वेग
हवाओं संग बह लिए होते
ना गिरने का डर
ना टकराने का डर
खुले आसमान में थोड़ा बहक लिए होते
जैसे ,सूरज की छव में उसका रंग दिखता है
पर वो रंग चाहें जहां वहां बिखरता है
कुछ ऐसा ही करें,
कि अपनी भी एक छवि बने
चाहें रहें आसमान में
पर जमीनों से ख्वाहिशें उड़ें
जैसे नए कपोलों की बातें सुनी हैं
अभी अभी घाम गुनगुनी हैं
तो जी उठें इसी मंज़र में
तूफान की खामोशी का क्या ख्याल करें
जाएंगे हवाओं के साथ खुले छोर की तरफ
भला उड़ानों पर भी क्या सवाल करें
रहना है पास पास तो बादल दूर क्यों हैं?
मेरे घर का पग पग इतना मज़बूर क्यों हैं?
बंजर हो जाती हैं जमीनें
इसलिए आसमान में रहना है
गरजते हैं धुँधलाते बादल
उनसे जमीन को तरना है
उलझना नही ये तो चाहतों की बातें हैं
मन को टटोलती, उनसे उभरती बाते हैं
पर हो ऐसा. मनोभाव के जैसा
तो थोड़ा खबर लिए होते
अगर भूलना ही है जमीन को
तो गगन का घर यादों में लिए होते
जिये होते कभी आकाश में
तो नभ को लिए होते
उनके सहारे जमीं नापते
उनके सहारे बून्द भी
दरिया भर लिए होते।
शिवम राव मणि