कविताअतुकांत कविता
झील पर तैरती
एक किश्ती
किश्ती पर सवार
हम दोनों
चल रहे
एक हरे पत्तों से ढके
जंगल की ओर
पेड़ों पर पत्ते हैं
कंवल के तन पर लदे भी
उसके हरे पत्ते हैं
आसमान का नीला रंग तो
दिख ही नहीं पा रहा
इन घनेरी हरियाली के
आंचल से ढक गया है
न सूरज का उजाला
न रात का अंधियारा
न कोई तन का
किनारा
न कोई मन का
मसीहा आज
दिख रहा है
नजर आ रहा है तो
बस हरे पत्तों का झुरमुट
हरे पत्तों का बिछौना
हरे तनों का स्थायित्व
हरे तिनकों का लचीलापन
हरि सुर में
हरि का राग अलापती
हरि का जाप करती
कोई हरियाली सी
हरी भरी
शांत बन में
शांत मन से गाती
कोई हरि की धुन।
मीनल
सुपुत्री श्री प्रमोद कुमार
इंडियन डाईकास्टिंग इंडस्ट्रीज
सासनी गेट, आगरा रोड
अलीगढ़ (उ.प्र.) - 202001
कितनी शांत कितनी स्थिर सी लगी यह रचना, बुत प्यारा सा ताना बाना बुनती हुई रचना