कविताअतुकांत कविता
रचनाकार- डा. शिव प्रसाद तिवारी (रहबर क़बीरज़ादा)
यूँ तो मेरा क़त्ल हुआ है।
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यूँ तो मेरा क़त्ल हुआ है,
मगर अभी मैं मरा नहीं हूँ।
रहता था उस जगह,
जहाँ पर सभी बिरहन ही रहते थे।
मैंने एक गइया पाली थी।
अमृत जैसा दूध था जिसका,
माँ के जैसी ममता वाली।
नेक फ़ाल थी,
नेक तीनत थी,
लाड़ले जैसे बछड़े वाली।
एक दिन अज़ब वाक़या गुज़रा,
गइया मेरी आधी रात बीमार हो गयी।
मइया मेरी आधी रात बीमार हो गयी।
मइया हुयी बेचैन वो तड़पी चिल्लायी,
लम्हे भर में गिरी जमीं पर,
और अचानक गुज़र गयी।
सुबह हुयी तो वो सब आये,
जो मेरे मुहल्ले वाले थे।
सारे लोग एक सुर में बोले,
मैने इसको मार दिया है,
कि मैने इसका क़त्ल किया है।
यह कि मैं इसका क़ातिल हूँ।
इससे फ़ाजिल बोलो मेरा क्या गुनाह था?
कि मैं बिरहमनों के मुहल्ले में रहता था।
ऐसे मेरा क़त्ल हुआ है,
मगर अभी मैं मरा नहीं हूँ।
यूँ तो मेराक़त्ल हुआ है,
मगर अभी मैं मरा नहीं हूँ।
तब मैं घोर नमाज़ी था,
कुछ मुल्ला कुछ क़ाज़ी था।
तब मैं वहाँ रहा करता था,
जहाँ सभी आदमज़ादा थे।
हममें उनमें फ़र्क इतना था,
मैं नमाज़ चुप चुप पढ़ता था,
वो नमाज़ गाकर पढ़ते थे।
एक दिन आधी रात हुयी तो,
पास के घर में धुआँ उठा,
शोरोशग़ब जब हुआ तो जाना,
मैने उस घर आग लगी है।
आग बुझाने मैं भी दौड़ा,
आग बुझी वापस घर आया।
सुबह हुयी तो-
देख तमाशा दंग रह गया।
मेरे दरवाज़े पर उनकी भीड़ खड़ी थी,
मैंने जिन्हें इन्साँ समझा था।
सब की उँगली मेरी ओर थी,
सब की जुबाँ पर मेरा नाम था।
और जले उस घर का बयाँ था।
इससे फ़ाजिल बोलो मेरा क्या गुनाह था,
कि मैने उन्हें इन्साँ समझा था
जो शायद इन्सान नहीं थे।
शायद मेरी सोच ग़लत थी,
शायद मैंने समझा ग़लत था।
यूँ भी मेरा क़त्ल हुआ है,
मगर अभी मैं मरा नहीं हूँ।
यूँ तो मेरा क़त्ल हुआ है,
मगर अभी मैं मरा नहीं हूँ।
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