कहानीसामाजिकलघुकथा
एक अजनबी दोस्त
मैने नंबर मिलाया, दूसरी तरफ से रिंग हो इससे पूर्व ही मुझे अहसास हो गया कि गलत नंबर लग चुका था।बहरहाल, रिंग जा रही थी,थोड़ी देर बाद किसी ने उठाया, "रोंग नंबर ।"रूखी सी आवाज़ थी। फोन काट दिया।
मैने दोबारा मिलाया," रोंग नंबर।"इस बार फिर फोन काट दिया।
मैं उस दौरान पुलिस विभाग में नियुक्त था। हमें जिज्ञासु और सतर्क रहने का प्रशिक्षण दिया जाता है,तो मैने तीसरी बार फोन मिलाया।
"अच्छा, तो ये फिर से तुम ही हो !"उधर से एक बेहद खीज भरी आवाज़ आई।
"हां, मैं यह जानना चाहता हूं कि मेरे बोले बगैर आपने कैसे जान लिया कि यह रोंग नंबर था?"
" इस बारे में तुम दिमाग खपाओ,यह तुम्हारी मर्जी है।"फिर फोन काट दिया।
मैं थोड़ी देर सोचता रहा, और फिर से फोन मिला दिया।
"क्या,... समझ में आ गया ?"उसने पूछा।
"हां,यही कि तुम्हे शायद कभी कोई फोन नहीं करता।"इस बार फिर उधर से फोन काट दिया गया।
मैने एक बार फिर फोन मिलाया,"अब तुम्हे क्या चाहिए ?"उसने उकताहट से पूछा।
"मैने सोचा मैं आपको ' हेलो ' कहूं।"मैने कहा
"हेलो....,क्यों ?"
"जब आपको कोई फोन नहीं करता तो मैने सोचा मैं ही…।"
"ठीक है...,कौन हो तुम ?"
आखिर उस बर्फीली दीवार को हटाने की मेरी कोशिश बेकार नहीं गई।मैने उसे अपने बारे में बताया और उसने मुझे अपने बारे में।
"मेरा नाम विश्वनाथ है।मै 88 साल का हूं और पिछले 20 वर्षों में मुझे किसी का फोन नहीं आया।"वह खोखली हंसी हंसते हुए बोले।
हमारी 10 मिनिट बात हुई जिससे मुझे मालूम हुआ कि उनका कोई दोस्त नहीं था, परिवार नहीं था जो भी करीबी लोग थे वे चल बसे थे। वह पुलिस विभाग मे लगभग 40 वर्ष काम कर चुके थे। ्
मैंने उनसे पूछा," क्या मैं आपको दोबारा फोन कर सकता हूं?"
आश्चर्य मिश्रित स्वर में उन्होंने पूछा," तुम मुझे दोबारा फोन क्यों करना चाहते हो?"
मैंने जवाब दिया," शायद हम फोन मित्र बन जाएं जैसे पहले पत्र मित्र हुआ करते थे।"
थोड़ी देर की खामोशी के बाद वह बोले," चलो,ठीक है,एक दोस्ती इस उम्र में सही।"
दूसरी दोपहर मैंने उन्हें दोबारा फोन मिलायाया। उन्होंने तुरंत उठा लिया। इस तरह मैं रोज़ाना उन्हें फोन करने लगा। अब वह अपने जीवन के अनुभव मुझे सुनाने लगे,और भी बहुत सारी बातें बताई।
वे बहुत मज़ेदार किस्म के इंसान थे। मैंने उन्हें अपने घर का और ऑफिस का नंबर दे दिया कि जब भी उन्हें मेरी ज़रूरत हो, वह मुझे किसी भी समय कॉल कर सकते थे।
मैं यह नहीं जतलाउंगा कि मैं एक बूढ़े व्यक्ति के प्रति दया दिखा रहा था बल्कि उनसे बात करना मेरे लिए भी उतना ही महत्वपूर्ण था। मैं, खुद एक अनाथालय में पला- बढ़ा था। मेरे पिता नहीं थे और मुझे उनसे बात करते हुए एक पिता की उपस्थिति का भान होता था। वह मुझे अक्सर मेरे काम से उपजी परेशानियों के दौरान संभालते थे। अच्छी सलाह देते थे और कहते थे," जल्दबाजी मत किया करो। कुछ वर्षों बाद तुम इन बातों को सोचोगे तो तुम्हें अपनी मूर्खता पर हंसी आएगी।"
एक बार उन्होंने कहा," मैं तुम से ऐसे बात करता हूं जैसे अपने बेटे से करता। मैं हमेशा चाहता था, मेरा परिवार होता, मेरे बच्चे होते, तुम अभी बहुत छोटे हो इन बातों का अनुभव भी तुम्हें नहीं है।"
एक शाम उन्होंने मुझे बताया कि उनका 89 जन्मदिन आ रहा है। मैं बाज़ार गया। मैंने बहुत ही ख़ूबसूरत ग्रीटिंग कार्ड लिया। 89 मोमबत्तियां लीं और अपने विभाग के साथियों से उस कार्ड पर उनके लिए दुआएं लिखवाईं।
हमारी टेलीफोन पर बातचीत होते हुए 4 महीने बीत चुके थे।हम रुबरु मिले नहीं थे। मैं उन्हें सर्प्राइज दूंगा , यह कार्ड उन्हें अपने हाथों से दूंगा। मैं उस एड्रेस पर पहुंच गया। मैंने अपनी कार बाहर पार्क की। मैं काफी देर उनके फ्लैट की घंटी बजाता रहा, तभी पड़ोसी निकले उन्होंने कहा," यहां कोई नहीं है।"
मैंने कहा," कोई नहीं है ? मिस्टर विश्वनाथ यहीं रहते हैं न ?"
उन्होंने पूछा,"आप कौन हैं, क्या उनके परिवार से हैं?" मैंने कहा," नहीं, मैं एक दोस्त हूं।"
उन्होंने कहा," दुख की बात है मगर वे परसों चल बसे।"
"चल बसे ! ऐसा कैसे हो सकता है?"मुझे अपनी ही आवाज़ बहुत खोखली , अजनबी सी लगी।
अपने आप को संभालता हुआ, नम आंखों से मैं अपनी कार की ओर बढ़ा।कार की पिछली सीट पर बिना खुला बर्थ डे कार्ड रखा था।
मैं बुदबुदाया," तुम रॉन्ग नंबर बिल्कुल नहीं थे,न अजनबी,तुम मेरे दोस्त थे।"
गीता परिहार
अयोध्या (फैजाबाद)