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गप्प बरसें, भीगे रे बंगाली - Sudhir Kumar (Sahitya Arpan)

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गप्प बरसें, भीगे रे बंगाली

  • 459
  • 18 Min Read

( बुरा मत मानो होली है )

यश चोपड़ा की फिल्म " सिलसिला " जब आयी थी तब मेरी आयु उतनी ही थी जितनी हमारे इस कालजयी आंदोलनजीवी सत्याग्रही की तब थी जब उन्होंने इस फिल्म का मौलिक संस्करण बनाकर जनमन को मुक्तिवाहिनी का एक अमर जवान बना दिया था और बड़प्पन तो देखिये, आज तक भक्तों के लिए अमृततुल्य, इस क्रांतिकारी, मौलिक, फिल्मी सत्य को अब तक छिपाकर रखा था. कोई भी महान व्यक्ति "अपने मुँह, मियाँ मिठ्ठू" थोडे़ ही बनता है. जब भक्तजन उनके इस अमूल्य योगदान को भूल जाते हैं तो देशहित में उन्हें ऐसा रहस्योद्घाटन करना पड़ता है.

चलो, देर आये, दुरुस्त आये. अब मौसम भी है, मौका भी है और दस्तूर भी है. हमारे इस फकीर ने बंगबंधु की " आमार सोनार बंगभूमि " से अपने सत्याग्रह की चेतना बिखेरती हुई क्या पिचकारी मारी है ! इसकी फुहार से गुलजार होकर बंगाल ही नहीं, पूरे देश का जनमन, धरा का कण-कण और इस कालखंड का क्षण-क्षण, "घर-घर, हर-हर" बनकर झूम उठा है और गाने लगा है,

" गप्प बरसें भीगें रे बंगाली "

इस पिचकारी की मीठी फुहार पड़ते ही " सिलसिला " के दूसरे संस्करण के ये भाव मेरे कानों में गूँजने लगे हैं. पहली वाली मौलिक फिल्म को देखने का तो मुझे सौभाग्य नहीं मिला. उम्र के उस दौर में फिल्म देखना तो दूर, फिल्म की बातें करना ही गालों पर गरमागरम थप्पड़ का गुलाल छिड़कवा देता था. हाँ, उसकी नकल जिसे हम अब तक असल समझते थे, यादों की वादियों में अँगडा़ई लेने लगी है. क्या संवाद थे ! एक झलक पेशे खिदमत है,

" मजबूर ये हालात इधर भी हैं, इधर भी "

अब इसका मौलिक रूप रचते हुए कुछ तो मजबूरी रही होगी कि हमारे इस सिद्ध को सिद्धार्थ बनकर रातों रात पलायन करना पडा़. हमारे इस नायक की नायिका जरूर " आमार सोनार बांगला " की आजादी ही रही होगी. तभी तो, ये उदगार आज भी कानों में बगावत की गुझिया की चाशनी टपका देते हैं,

" रुलाई की ये रात इधर भी हैं, उधर भी "

जी हाँ,

" एक तड़प इधर भी थी और एक उधर भी "

जी हाँ, रुलाई की उस रात में जुदाई की वो तड़प इतनी कड़क होकर फड़क रही थी कि हमारे इस सत्याग्रही को भाभीजान की चूडियों की खनक भी जेल जाने से रोक नहीं पायी.

बेडा़ गर्क हो इन काँग्रेसी और वामपंथी इतिहासकारों का, कि इतनी बडी़ गौरवशाली घटना को छिपाकर जनमन को एक क्रांतिकारी प्रेरणा से वंचित रखा वरना अटलजी, जिन्होंने तब अपनी राजनैतिक प्रतिद्वंद्विनी इंदिरा को दुर्गा कहकर पुकारा था, इन्हें तो साक्षात धनुर्धर राम ही बना देते
और तत्कालीन द्रोणाचार्य आडवाणी जी अपने इस भावी "अंगूठा-वंचक एकलव्य" को अपना सब कुछ सौंपकर उसी समय हँसते हँसते मार्गदर्शक मंडल में चले जाते. अटलजी और आडवाणी जी को इस सौभाग्य से वंचित रखकर देश के साथ जो छल इन छद्म इतिहासकारों ने किया है, उसके लिए देश का सच्चा, वाट्सप वाला इतिहास उन्हें कभी क्षमा नहीं कर सकता.

आज मेरा मन कहता है कि तुलसी की इस चौपाई का,

" सकल पदारथ हैं जग माहीं
कर्महीन जन पावत नाहीं "

इसके मौलिक रूप से साक्षात्कार करवा ही दूँ,

" सकल पदारथ हैं जग माहीं,
फेंकवीर जन पावत ताहीं "

तभी तो तेज फेंकने का नया इतिहास रचने, शतकों की पट्रोली वर्षा और पालाबदल की सफल फील्डिंग के लिए अहमदाबादी मैदान को उसके मूलनाम से धन्य करवाया गया. बंगला देश की आजादी के लिए इतना त्याग करने वाले इस सत्याग्रही के लिए इतना करना तो बनता ही है अन्यथा देशहित खतरे में पड़ जायेगा.

इस गुगली-प्रक्षेपक को शत शत नमन जिसकी तोड़ को सर्च करते-करते गूगल भी हाथ खडे़ करके आत्मसमर्पण की मुद्रा में आ जायेगी और उन दिनों का वह, पिचानवे हजार पाक सैनिकों का वह आत्मसमर्पण भी फीका पड़ जायेगा जिसे इंदिरा जी के कुशल नेतृत्व में जनरल मानिक शा
और ले. जनरल अरोडा़ ने अंजाम दिलाया था.

हम लोग वास्तव में धन्य हैं जिनको इतना चमत्कारी, देश का पहला आंदोलनजीवी प्रधानमंत्री और उनके दो परमानंद-शिष्यों के रूप में त्रिपुरा में त्रिलोक समेटता एक विप्लवकारी और उत्तराखंड का नया "तीरथ", ये दो नव इतिहाकार मुख्यमंत्री मिले.

एक बार फिर निवेदन है,

" बुरा मत मानो, होली है "

द्वारा : सुधीर अधीर

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Anujeet Iqbal

Anujeet Iqbal 3 years ago

🙏👌👌

समीक्षा
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