कवितालयबद्ध कविता
कविता-जीवित श्मशान
समक्ष शव जल रहा था,
परोक्ष द्वंद चल रहा था ,
क्षणिक विरक्ति का भाव,
क्षुब्ध मन में पल रहा था।
क्या यही मरण है अंत?
हम जिसे मानें अनंत,
देह वह अनल जलाए,
क्षुद्र राख छोड़ जाए।
मेरा चित्त था अशांत,
चिताभूमि में था क्लांत,
मातंग पास आ गया,
मैं एक सखा पा गया।
"जलाता नित कई शरीर,
फिर भी ना होता अधीर,
कैसे तू यों निर्मम हुआ,
क्या तुझमें व्याप्त तम हुआ?"
विद्रूप मुख पर छा गया,
आंखों में गर्व आ गया ,
" यह करना मेरा धर्म है,
यह कौन गर्हित कर्म है?।
"भयंकर चूडा कराल,
तुझमें बैठे डेरा डाल,
वह नित तुझे जला रहे,
ज्यों धमनी को चला रहे"।
"अहंकार,लोभ ,भ्रष्टता,
निजजनों से दुष्टता,
नित तुझे जला रहे,
विवेक को गला रहे।"
"यह चिता पर जलता चर्म,
मात्र वपु का अवसान है,
अब यह हतप्राण है,
पर तू जीवित श्मशान है।"
-रजनीश तिवारी।