कहानीसंस्मरण
भूली बिसरी यादें
बुआ का स्नेह अपने भतीजे, भतीजियों के प्रति अगाध, रहता है, वे भी अपनी बुआ से सबसे अधिक प्यार करते हैं
मेरे साथ भी हमारी बुआ जी की असंख्य स्मृतियाँ हैं.
हम लोग बहुत छोटे थे तभी बुआ जी ने फूफा जी को खो दिया. वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ाते थे . लेकिन उन्होंने अथक परिश्रम किया, अपनी पीएचडी पूरी की, और उन्हें दिल्ली के इन्द्रप्रस्थ डिग्री कालेज के, हिन्दी विभाग में नियुक्ति मिल गयी.
, उनका एकमात्र पुत्र भी बहुत छोटा था, हम लोग हमउम्र थे.उन्होंने बड़े धैर्य से, जीवन की कठिनाइयों का सामना किया. मन की पीड़ा या विषाद चेहरे पर नहीं दिखते थे..! हम लोग तो छोटे थे, गम्भीरता क्या समझते..!
बुआ हर गर्मी की छुट्टियां में अपने मायके हरदोई आतीं.वे दिल्ली से हमलोगों की मनपसंद '' चिउड़े की दालमोट और रूहअफजा की बोतलें जरूर लाती. हम लोग भी अपने माता-पिता के साथ वहां पहुंचते, वहां चचेरे भाई-बहन, बाबा दादी होते, वे हम सब को बहुत प्यार करती थीं. घर में सभी उनका आदर, सम्मान करते.वे अपने तीन बड़े भाइयों की अकेली बहन थीं. हम लोगों को भी कोई बात मनवानी होती थी तो बुआ जी से कहते थे. वे तर्कपूर्वक हमारी बात रखतीं, उनकी बात सभी मानते थे.
बाबा शहर के बड़े वकीलों में से थे. शहर के सभी गण्यमान्य व्यक्ति हमारे यहां आते थे.
वे कहीं भी जातीं, हमलोगों को साथ में लेकर जातीं, दोपहर को सब बड़े लोग '' ट्वेंटी-नाइन '' खेलते, हम लोग भी खेल में उनकी नोक-झोंक का मज़ा लेते, शर्बत, खर्बूजा आदि खाया जाता. सबके साथ बहुत अच्छा समय बीतता.
वे प्रायः हम लोगों के यहां कानपुर भी आतीं, मेरा बहुत ध्यान रखती थीं. मेरी आइसाइट बहुत कमजोर थी, उस समय सीतापुर में आंख का अस्पताल प्रसिद्ध था, वे वहां भी, दिखाने ले गयीं थीं.
मैं अक्सर दिल्ली जाता,कश्मीरी गेट से, अपेक्षाकृत पास, अलीपुर रोड पर आई पी कालेज कैम्पस में उन्हें '' स्टाफ फ्लैट '' मिला हुआ था. कालेज का परिसर बहुत विशाल और सुन्दर था. लड़कियों का होस्टल भी परिसर में था.एक बैंक की शाखा भी, कैम्पस में खुल गयी. तब दिल्ली में इतनी भीड़ भाड़ नहीं होती थी, पुरानी दिल्ली से भी बहुत सी ट्रेनें चलती थीं, उनके घर से कुछ पास पड़ता था .मैं वहीं से ट्रेन पकड़ता था. उनके बेटे के साथ बचपन से गहरी दोस्ती थी अतः खूब अच्छा समय बीतता था.
वे कालेज लाइब्रेरी से हम लोगों के लिए किताबें लातीं, हम लोग पढ़ते, कभी कैन्टीन से इडली, दोसा आदि लातीं. घर पर भी बहुत कुछ बनातीं. मैं अक्सर कानपुर से चला जाता था. उनके चेहरे पर हमेशा उल्लास रहता था, हम लोग बसों या आटो से वहां के मार्केट जाते थे.
संयोग से मुझे सर्विस ज्वाइन करने की सूचना दिल्ली में ही मिली, मैं बी ए फाइनल में था, 19 वर्ष का था, व्यावहारिक ज्ञान बहुत कम. उन्होंने उत्साह से खूब खरीददारी करवायी.
कुछ ही महीने बाद बैंक की ट्रेनिंग थी, ट्रेनिंग सेंटर दिल्ली के चाणक्यपुरी में था, घर से काफी दूर, पहले दिन वे मुझे आटो से छोड़ने, वहाँ तक गयीं.
समय धीरे धीरे बीतता गया. '' गर्मी की छुट्टियां '' अब यादों में ही रह गयी, ग्रह जनपद की सिंगिल रोड, अब कुछ बेहतर हो गयी, लेकिन शहर के बाग, बगीचे जैसे गायब होने लगे., उसका स्वरूप धीरे-धीरे बदलने लगा, हरियाली कम होती गयी. बाजारों में भीड़भाड़ बढ़ने लगी. शहर बड़ा हो गया, पुरानी जगहें पहचान में नहीं आतीं.
मेरे विवाह के समय माता-पिता दोनों नहीं थे.
मन में कुछ विषाद और तटस्थ सा भाव सा था.हालांकि बाकी सभी सदस्य थे, वे भी पूरे समय उपस्थित रहीं और सभी गतिविधियों में शामिल रहीं.
धीरे-धीरे समय बीतता गया, सभी लोग व्यस्त होते चले गये . मिलना भी कम होता, फिर भी वे जन्मदिन तथा अन्य अवसरों पर पत्र द्वारा आशीर्वाद अवश्य भेजतीं
और समय बीता..
उनका रिटायर्मेंट भी हुआ और वे बेटे के साथ दिल्ली में एक एपार्टमेंट में रहने लगीं.
हम जब भी दिल्ली आते उनसे जरूर मिलते.मेरे बड़े भाईसाहब भी तब दिल्ली में थे.
उनके पौत्र, पौत्री भी बड़ी क्लास में पहुंच गए.
वे हम सबके हालचाल लेती रहतीं.
बढ़ती अवस्था के साथ उनका देहावसान हो गया. मैं उस समय बैंक की एक दुरूह ग्रामीण शाखा में पोस्टेड था. हम लोग दिल्ली इकट्ठे हुए. सभी कार्यक्रम में रहे.
उनकी स्मृतियाँ हमेशा जीवन का एक अभिन्न अंग बन कर रह गयीं. लिखने को तो बहुत कुछ है.
काफी बाद में, रिटायर्मेंट के बाद मैं भी संयोग से कानपुर से एन सी आर में आ गया.
अक्सर मैं दिल्ली में उनके सान्निध्य में बीते बचपन के दिन याद करता हूं. तब की दिल्ली जब इतनी भीड़ भाड़ नहीं थी. गर्मी के दिनों में भी अपेक्षाकृत ठंडी रातें.
अभी भी उनका बेटा और मैं पुराने दिनअक्सर याद करते हैं.
वह गूगल मैप पर,हमारे ग्रहजनपद में अपने नाना नानी का आवास लोकेट करता. मैं भी वहां के फोटो शेयर करता, क्योंकि जाना तो बहुत ही कम होता है . जब जाते तो घर के अनेक स्थानों के फोटो लेते. बाबा का आफिस का कमरा जिस में कानून की किताबें अभी भी शीशे की अलमारियों में हैं.
.
बचपन की स्मृतियाँ हमसब की अमूल्य निधि हैं. उनके सम्बल से ही हमें जीने का आधार मिलता है.
कमलेश वाजपेयी
नोएडा
अपनों के आने का इंतजार भी बहुत रहता था।
जी..!!
बहुत सुंदर संस्मरण। बचपन की यादें अनमोल होती हैं। रूह-आफज़ा ही एकमात्र शर्बत होता था किसी ज़माने में
अम्रता जी.. बहुत धन्यवाद..!