कहानीसंस्मरण
पिता की सीख
बालपन कोरा कागज़ होता है, जिस पर परिवार के लोग जैसी इबारत लिखते हैं,वह ताउम्र उस पर प्रभाव डालती है।क्योंकि बच्चे की पहली पाठशाला उसका घर होता है और पहले गुरु माता- पिता।बच्चों का कोमल मन बहुत संवेदनशील होता है।अच्छे या बुरे दोनों का प्रभाव उन पर समान रूप से पड़ता हैं।इसी संवेदनशीलता से बच्चे अपने आसपास की चीजों, लिए गए निर्णयों, होने वाली घटनाओं, मिलने वाली अनुभूतियों और व्यवहारों से जीवन मूल्य और जीवन दृष्टि ग्रहण करते हैं।परिवार बच्चों की पहली पाठशाला है।जैसी नींव बचपन में डाली जाएगी,वैसी ही जीवन की इमारत बनेगी।
बचपन को गीली मिट्टी भी तो कहा जाता है और माता-पिता और शिक्षकों को कुम्हार।जिस प्रकार वे आकार देंगे, बच्चे वैसे ही बनेंगे।
बचपन में डाले गए संस्कार जीवन भर साथ रहते हैं। जैसा वातावरण बचपन में मिलता है उसका असर और परिणाम दूरगामी होता है।
हम सभी ने बचपन में अपने माता- पिता और शिक्षकों से सीखा है कि अपने से बड़े लोगों का सम्मान करना चाहिए।भारतीय संस्कृति में अपने से उम्र या ओहदे में बड़े व्यक्ति को एक उच्च स्थान देने व उनका सम्मान करने को ख़ास महत्व दिया गया है।
मेरे पिता, मेरे पहले गुरु थे उन्होंने सिखाया कि हर व्यक्ति को सम्मान प्राप्त करने का पूरा हक़ है।सम्मान उम्र पर निर्भर नहीं होता। इसलिए केवल अपने से बड़ों का ही नहीं,हमें अपने छोटों को भी सम्मान देना चाहिए।
मेरे किशोरावस्था में पहुंचने से पूर्व ही मां स्वर्ग सिधार गई थीं इसलिए भी पिता का ही मेरे जीवन में बचपन से विशेष स्थान रहा। उन्होंने सिखाया छोटों को कभी ‘तू’ कहकर सम्बोधित न करना। बड़ों के नाम के आगे ‘जी’ लगाकर सम्बोधित करना।घर में काम करने वाले सहायकों को ‘भैया’, ‘दीदी’, या नाम के आगे ‘जी’ लगाकर पुकारना।किसी से भी ऊंची आवाज़ में बात न करना।बात करते हुए ‘प्लीज’, ‘थैंक यू’ और ‘सॉरी’ जैसे शब्दों का यथोचित उपयोग करना और अपशब्दों से हमेशा बचना। इस बात की मैंने गांठ बांधी और कभी भी अपने ऑफिस में पियून या आया को तू या तुम कह कर संबोधित नहीं किया।
वे कहते,सबकी बातें ध्यान दे कर सुनना चाहे वह बात तुम्हारे लिए छोटी हो पर सामने वाले के लिए आवश्यक हो सकती है। उनकी यह सीख मेरे लम्बे कैरीयर में बहुत काम आई।मेरे मातहत मेरी इस आदत के कारण हमेशा मुझे अपना समझते रहे और हमेशा मुझे सहयोग देते मिले।
उन्होंने कहा था सबसे हमदर्दी रखना।किसी नकारात्मक भाव को खुद पर हावी न होने देना, बात का सकारात्मकता पक्ष लेना। मैंने 38 वर्ष शिक्षण का कार्य किया पहले अध्यापिका और फिर प्रिंसिपल की पोस्ट पर।
मुझे खुशी है कि मेरे शिक्षार्थी आज भी मुझे स्नेह और सम्मान देते हैं।शायद मेरे पिता की शिक्षा पर मैंने अमल किया,वह कारण रहा हो।
वे स्वयं मृदु स्वभाव के थे और किसी से सायास कोई मदद नहीं लेते थे,छोटी बात पर भी आभार व्यक्त करना नहीं भूलते थे।उनका मानना था कि सम्मान देने से ही सम्मान मिलता है।
आज नारी सशक्तीकरण और नारी मुक्ति की आवाज सुनते हैं। मेरे पिता ने वर्षों पूर्व हमें अपने फैसले और जिम्मेदारी लेने के लिए प्रेरित किया और स्वतंत्रता भी दी थी।
हां, यह सीमा रेखा जरूर खींची थी कि जैसे हम अपने कामों में दूसरों का दखल नहीं चाहते तो हम भी दूसरों के काम में हस्तक्षेप नहीं करेंगे,न ही अपने सिद्धांत, मूल्य और नियम किसी पर जबरन थोपेंगे।
मैं गुस्सैल थी,गलती हो तो स्वीकार नहीं करती थी। उन्होंने सिखाया क्षमा मांगने से तुम्हारा बड़प्पन दिखेगा, छोटी नहीं हो जाओगी, इसलिए अगर कोई गलती हो जाए तो क्षमा मांग लेना।
मेरे पिता ने विभाजन का दंश झेला था। उनकी लाहौर में प्रतिष्ठित ज्वेलरी शॉप थी। मेरी मां पुलिस अधिकारी की पुत्री थीं। किंतु विभाजन में उन्हें रिफ्यूजी कैंप में भी रहना पड़ा।सब कुछ जाता रहा। जीवन में आई चुनौतियों से वे भागे नहीं, बल्कि उनका डटकर मुकाबला किया।पुराना वैभव तो नहीं पा सके, किंतु सम्मान से जीने योग्य जीवन जिया।
वे कहते ,कोई भी समस्या इतनी गंभीर नहीं होती जिसका हल ना निकाला जा सके। समस्याओं के आगे कभी घुटने नहीं टेकना चाहिए।
गीता परिहार
अयोध्या
बहुत सुन्दर स्मृतियाँ..!
जी, आपका हार्दिक आभार