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मन तन के पार - Krishna Tawakya Singh (Sahitya Arpan)

कविताअतुकांत कविता

मन तन के पार

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  • 6 Min Read

मन तन के पार है
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अब तुम्हारी नग्न तस्वीरों में
मेरा मन मगन नहीं होता |
अब शायद इसने इन तस्वीरों के पार देखना सीख लिया है |
जो कभी देह में ही अपनी दृष्टि
गड़ाए रखता था |
वह सृष्टि के उन रहस्यों में
खो गया है |
तुम्हें उस लिबास में देखा है इसने
जो तुम्हें खूबसूरत बनाते हैं |
उस श्रृंगार में देखा है इसने
जो तुम्हें सजाते हैं
और तुम्हारे रंगों को और गहरा कर देते हैं
जो तुम्हें अप्रतिम सौंन्दर्य की याद दिलाते हैं
वो बेली के उजले फूल ,गुच्छों में बँधे हुए
तुम्हारे काले बालों से लटकते हैं
एक बार पूरब से पश्चिम तक
और उतर से दक्षिण तक का सफर
तय कर लेते हैं
जब तेरे गर्दन अपने बालों को झटकते हैं |
वो तुम्हारे काँधे से सरकता
रेशमी दुपट्टा जब तुम्हारे कदमों के आगे पीछे होने पर
टकराकर पैरों पर फिर वापस आता है
और लिपट जाता है तुम्हारे तन से
और समेट लेता है तुम्हें अपने पनाह में
विस्तार देता हुआ तुम्हें
उड़ जाता कभी विस्तीर्ण क्षितिज में
तुम्हारी गरिमा की गहन छाप लिए
तुम्हारे वक्ष को सुशोभित करता
बिना कोई माप लिए |
अब इन भरपूर लिबासों के बिना
लगता है कुछ कमी है
पत्तों के बिना तनों पर
कहाँ किसी की नजर जमी है |

कृष्ण तवक्या सिंह
04.03.2021.

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