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किसान की माँ - 2 - Sushma Tiwari (Sahitya Arpan)

कहानीसामाजिकप्रेरणादायक

किसान की माँ - 2

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गतांक से आगे...

आज खेतों की ओर बढ़ते रामाधीन को मन में सिर्फ राधा का ख्याल आ रहा था। कहीं मैं स्वार्थी तो नहीं हो गया हूँ? बिटिया का ब्याह अगर अच्छे से नहीं किया तो भले ही एक अच्छा पुत्र कहलायेगा पर एक अच्छा पिता नहीं। रामाधीन ने आंख उठा कर खेतों को देखा। माँ की छाती सूखी हो कर बंजर हो चली थी जैसे रो रही हो कि मेरे बेटे तुम्हें देने को अब मेरे पास कुछ भी नहीं है। रामाधीन वही धम्म से बैठ गया। आँखों से आंसू की धार बह चली थी। काश कि अपने आंसुओ से ही धरती को सींच पाता।

"क्यूँ रो रहे हो?.. इतना दुःख भला किस बात का?"

"रोऊँ नहीं तो क्या करूं?.. कभी सोचा ना था माँ, की परिवार के भूख को शांत करने के लिए तुम्हें ही कुर्बान कर दूँगा"

"तो माँ का क्या कर्तव्य है बताओ? त्याग और समर्पण का दूसरा नाम ही माँ है ना..दुःख तो इस बात का है की अब मैं अपने परिवार का भरण नहीं कर पा रहीं हूं, वर्ना आज यह नौबत ही नही आती।"

" फिर भी कितने सलोने स्वप्न सजाये मैंने, धूप में झुलसकर मेघ की बाट देखता रहा.. पर ये मेघ भी देखो कितने निष्ठुर हो गए हैं, और सरकारें शून्य हो गई हैं.. कर्ज पर कर्ज चढ़ा हुआ है.. निराश हो मैं मृत्यु को भी स्वीकार लूँ पर उससे भी तो परिवार का पेट ना भर पाएगा ना.. मैं मजबूर हूं ,वर्ना माँ का सौदा कौन करता भला?"

"देखो तुम किसान हो, अन्नदाता हो अगर ये बात इन्हें नहीं समझ आ रही है तो तुम आंसू क्यूँ बहाते हो? मैं मां भी तो तुमसे ही कहलाती थी, मेरी छाती पर अगर ये लोग कंक्रीट के जंगल बना कर तुम्हारे परिवार की भूख शांत करते हैं तो सोचो मत! अब ये सोचे की इनके परिवार का पेट कौन भरेगा? चलो देखते हैं कब तक शून्य बैठती है बाकी की दुनिया अन्नदाता से उसकी कर्मभूमि छिन कर।"

रामाधीन उठ कर अपनी मां को प्रणाम कर चल दिया , अभी काग़ज़ी कारवाई करनी बाकी जो थी। फिर रामाधीन ने माँ का सौदा कर दिया। बबलू बहुत खुश था। आज घर में पैसे आए थे। बहुत अच्छे अच्छे पकवान भी बन रहे थे। सुकुमारी भी आज श्रृंगार कर नई नवेली से कम नहीं चमक रही थी। राधा का रिश्ता होने वाला था। राधा भी खुश थी। सुकुमारी ने सारे पकवान थाली में सजा कर बबलू से कहा " जा पहले बापू को बुला ला.. बहुत दिन हुए अच्छे से साथ खाना नहीं खाया।"
बबलू जितनी तेजी से गया उतनी ही तेजी से वापस आया
" अम्मा! बापू हिलते डुलते नहीं है जरा देखो तो "
पकवान की थाली मिट्टी को सुपुर्द कर सुकुमारी बदहवास हो कर दौड़ी। रामाधीन जा चुका था। माँ का विरह उसे सहन नहीं हुआ। जब कोई तुमसे इतनी बुरी तरह से जुड़ी हो कि तुम्हारा अपना हिस्सा बन जाए तो उसका तुमसे जुदा होना तुमको भी खत्म कर देता है। उस दिन जाने कहां से बादल चले आए। सुकुमारी चीख चीख कर रो रही थी और पागलों की तरह बादलों को भागने के लिए कह रही थी।
" अब क्या देखने आये हो "
बादल खूब बरसे। जैसे डूबा देंगे सुकुमारी की आंसुओ की धार में पूरी दुनिया, वैसे बरसे। हाँ पहले बरसे होते तो रामाधीन की माँ शायद बच जाती। पर अब खाट पर पड़ा रामाधीन का निर्जीव शरीर इस चिर प्रतीक्षित बारिश को देख कर बिलकुल भी नहीं हिला। का बरसा जब कृषि सुखाने? नहीं नहीं ये तो रामाधीन के आँसू थे।

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Ankita Bhargava

Ankita Bhargava 4 years ago

मर्मस्पर्शी

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