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कुण्डलियाँ "बसंत और पलाश" - Basudeo Agarwal "Naman" (Sahitya Arpan)

कविताछंद

कुण्डलियाँ "बसंत और पलाश"

  • 201
  • 5 Min Read

(कुण्डलियाँ छंद)

दहके झूम पलाश सब, रतनारे हों आज।
मानो खेलन फाग को, आया है ऋतुराज।
आया है ऋतुराज, चाव में मोद मनाता।
संग खेलने फाग, वधू सी प्रकृति सजाता।
लता वृक्ष सब आज, नये पल्लव पा महके।
लख बसंत का साज, हृदय रसिकों के दहके।।

शाखा सब कचनार की, करने लगी धमाल।
फागुन की मनुहार में, हुई फूल के लाल।
हुई फूल के लाल, बैंगनी और गुलाबी।
आया देख बसंत, छटा भी हुई शराबी।
'बासुदेव' है मग्न, रूप जिसने यह चाखा।
जलती लगे मशाल, आज वन की हर शाखा।।

हर पतझड़ के बाद में, आती सदा बहार।
परिवर्तन पर जग टिका, हँस के कर स्वीकार।
हँस के कर स्वीकार, शुष्क पतझड़ की ज्वाला।
चाहो सुख-रस-धार, पियो दुख का विष-प्याला।
कहे 'बासु' समझाय, देत शिक्षा हर तरुवर।
सेवा कर निष्काम, जगत में सब के दुख हर।।

कागज की सी पंखुड़ी, संख्या बहुल पलास।
शोभा सभी दिखावटी, थोड़ी भी न सुवास।
थोड़ी भी न सुवास, वृक्ष पे पूरे छाते।
झड़ के यूँ ही व्यर्थ, पैर से कुचले जाते।
ओढ़ें झूठी आभ, बनें बैठे ये दिग्गज।
चमके ज्यों बिन लेख, साफ सुथरा सा कागज।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया

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शिवम राव मणि

शिवम राव मणि 2 years ago

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