कविताअतुकांत कविता
प्रकृति हमारी धरोहर
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प्रभु की निर्मित धरा हिमालय,प्रभु का ये उपहार।
हर्षित पुलकित मन हो जाता अद्भुत छंटा निहार।
स्वर्णिम सूरज की किरणें चहुं ओर बेखेरे आभा।
लगता है कि प्रकृति दुलारी कर बैठी श्रृंगार।
मलय पवन जब छू जाता है कोमल हृदय द्वार।
मानो ईश्वर ने भेजा है अनुपम ये उपहार।
कितनी सुंदर धरा हमारी, हिम से ढके हैं पर्वत ।
स्वर्णिम चादर ओढ़ के पर्वत सोया पांव पसार।
मानो मखमली प्रांगण में असंख्य हैं मोती बिखरे।
दृश्य है कितना मनोहारी छाई हो मृदु बहार ।
मिश्रित रंगो में जैसे डूबा है गगन मनोरम।
मन मोहित हो जाता देख के अंबर का विस्तार।
प्रकृति शायद हमसे कुछ कहना चाहे आज।
प्रकृति है गीत धरा की कजरी और मल्हार।
करना रक्षा सदा हमारा मत करना तुम दोहन।
हमसे है अस्तित्व जगत का हमसे ये संसार।
** मणि बेन द्विवेदी
वाराणसी उत्तर प्रदेश