कहानीअन्य
समापन अंक # शीर्षक
सिंदूरी शाम
वह सिंदूरी शाम अब धीरे -धीरे धीरे रात की ओर बढ़ रही थी । आज शायद पूर्णिमा की रात थी तो स्वच्छ - निर्मल चांदनी फैलने लगी थी । यद्दपि वहां बिजली नहीं होने के कारण अंधेरा छाया था पर बाबा की सहज सौम्य छवि हमें साफ दिख रही थी ।
और हम पूरी तरह अभिभूत हो चुके थे । मैं मन ही मन वाक्य बना रहा था जिससे कुछ बात शुरू की जा सके होठोँ में ही वाक्य बुदबुदाता पर अधूरे ही रह जातें ।
बाबा मेरे बोलने के प्रयत्न पर लगातार ध्यान दे रहे थे और लगा जैसे एक साथ ही खुश और दुखी दोनों हो रहे थे ।
उस रात मेरा सामना मानो बाबा से ना होकर खुद अपने आप से था ।
सामने ऐसा रहस्यमय व्यक्ति बैठा था जिसके प्रभाव से मेरी वाणी और श्रवण शक्ति शून्य होती जा रही थी ।
कितने विश्वास के साथ घर से चला था पर यहाँ आ मेरी सारी सम्भावनाऐं ध्वस्त हो रही थीं ।
तभी रतनलाल के इशारे पर एक छोटा लड़का भाग कर चाय ले आया जिसे पी कर हमारे बदन में थोड़ी गर्मी आई ।
धीरे -धीरे प्रकृत्तिस्थ होने पर मैंने गौर किया बाबा की नजर मुझ पर ही गड़ी है मानों मेरी विश्वशनीयता को तौल रहे हों ।
उनके स्निग्ध चेहरे पर एक विचित्र से संतोष एवं पाश्चाताप के मिले - जुले भाव तिर रहे थे ।
लेकिन इससे पहले कि हमारे बीच कुछ वार्तालाप प्रारंभ हो आस-पास के भोले ग्रामीण बाबा के दर्शन को जुटने लगे थे । एक मेले जैसा माहौल बनने लगा था । जिसमें अजय अपने -आप को सामान्य नहीं पा रहा था .
उसने मेरे हांथ पकड़े और लगभग खींचते हुए मुझे जीप में बैठा दिया , हम वापसी के लिऐ चल चुके थे ।
मेरी अवस्था कुछ - कुछ सम्मोहन वाली हो गई थी खैर ।
वापस पंहुच मैं बगैर कुछ खाए - पिए बिस्तर पर निढ़ाल हो कर गिर गया था और गहरी निद्रा में चला गया था ।
मैं गहरी निद्रा में ही था , अचानक मध्य रात्रि में मुझे महसूस हुआ एक तेज प्रकाश पुंज बन्द दरवाजे को पार कर मेरे सिरहाने प्रकट हुई ।
और मेरी तन्द्रा माथे पर हिम से भी शीतल स्पर्श से एक झटके से टूट गई थी ।
अध मुंदी आंखो से मैंने बाबा जी को देखा जिनकी सांसे काफी तेज- तेज चल रही थीं , इतनी तेज कि उसकी घरघराहट भरी आवाज मुझे साफ सुनाई दे रही थी ।
यों सांसे तो मेरी भी तेज चल रही थीं एक बेहद भय मिश्रित उत्तेजना से भरे उस क्षण में सिर्फ़ हम दो थे और हमारे बीच बाबाजी की ना जाने कितनी कहानियां ।
तनाव में भर मैं उठ कर बैठ गया था और बाबा की फुसफुसाहट जैसी आवाज कानों में महसूस कर रहा था ।
" तुम्हें देख कर लगा मेरे देहावसान का उपयुक्त समय आ गया कितने दिनों से तुम जैसे ही किसी पात्र की खोज में था ।
जहाँ भी गया भरपूर इज्जत , प्रेम , स्नेह और भक्ति का भागीदार बना ।
हर जगह मैं पूजा तो गया पर मेरे अन्तर्मन में झाकँ कर देखने की कोशिश किसी ने नहीं की ।
जिज्ञासा एकमात्र तुम्हारी आंखों में दिखी ।
तो सुनो मैं भी किए गए पापों का बोझ लेकर उस लोक जाना नहीं चाहता , प्रायश्चित करना चाहता हूँ ।
इन्सान प्रकृति का ही अंश है और एक दिन इसी में मिल जाता है , लेकिन जिस किसी से भी गलती जान बूझकर कर होती है उसे कुदरत समय के विपरीत धारा में बहने को प्रेरित करती है ।
मेरा जन्म भी एक बहुत अमीर घराने में हुआ जहाँ विलासी पिता ने चार - चार शादियाँ की थी मैं उनकी प्रथम पत्नी की संतान हूं ।
समझ सकते हो बचपन कैसे वातावरण मे बीता होगा ?
जिस बालक की मां ९ वर्ष की अवस्था में उसे छोड़ गई हो और चारो तरफ ऐश्वर्य और भोग विलास का सामराज्य फैला हो ।
दस से चौदह साल तक तक घर के ही एक घरेलू नौकर ने मेरा लगातार दैहिक शोषण किया था ।
बाद में भेद खुल जाने के डर से वह घर से भाग गया ।
फिर हमारे घर एक रिश्ते की बाल विधवा बूआ रहने आई ।
जिन्होंने रिश्तों की कोई मर्यादा ना रखते हुए मेरा पूर्ण रूप से मानसिक और शारीरिक दोहन किया ।
मेरी सुनने वाला और मुझे सही राह दिखाने वाला कोई न था ।
मैं पूर्णतः पतन के गर्त्त में डूब चुका था था ।
परन्तु थोड़े ही दिनों बाद शायद मेरी अपनी मां के दिए गए उच्च संस्कारों की वजह से मेरा मन वितृष्णा से भर गया , परन्तु इस सबसे निकलने का कोई मार्ग भी नजर नहीं आ रहा था ।मैं
तभी एक दिन हमारे गांव से नागा साधुओं का जत्था गुजर रहा था बस मैं भी उनके पीछे हो लिया ।
एवं अपराध बोध से भरा हुआ मैं अपने - आप को दण्डित करने के उद्देश्य से वस्त्र और अन्न का त्याग कर दिया ।
" परन्तु अब मेरी माता जी मुझे बुला रही हैं अतः अपनी इच्छा से शरीर त्याग कर रहा हूँ " और मेरे देखते - देखते वह दिव्य प्रकाश पुंज गायब हो गया ,
और मैं बेसुध हो गया था ।
अल्लसुबह निद्रा टूटने पर मैं भागा हुआ फिर से जंगल की ओर गया लेकिन इस बार जैसे पैर उठ ही नहीं रहे हो मन भी भारी हो रहा था खैर ।
परन्तु वहाँ सिर्फ बाबा जी का नश्वर शरीर ही मिला जिनके महाप्रयाण की तैयारी गांव वाले कर रहे थे ।
बहुत देर तक मैं हत्प्रभ और थोड़ा डरा हुआ सा भी कुटिया में बैठा हुआ इधरउधर देखता रहा , समझ नहीं पा रहा था क्या करूँ कि एक चादर के नीचे मुझे किसी कागज के टुकड़े पर वहाँ से बहुत दूर बसे लखीमपुर गांव के जमींदार साहब का पता लिखा हुआ मिला ।
जिस पर किसी राजसी नवयुवक की धूमिल पड़ी छवि अंकित थी जो हुबहु बाबा जी से मिलती नजर आई ।
मेरे हांथ खुद व खुद श्रद्धा नवत् हो जुड़ गये...थे।
इति श्री
सीमा वर्मा