कविताअतुकांत कविता
बदलते शक्ल
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हम दर्पण लेकर आए थे |
उन्होंने आईना दिखा दिया |
उनकी तस्वीर देखना चाहता था
उन्होंने मेरी शक्ल समझा दिया |
बड़े अरमान थे उनके रूप उकेरने की
उन्होंने मेरी शक्ल ही उकेर दी |
जैसे ही नजर पड़ी उनपर
उन्होंने नजर फेर ली |
हम भी बड़े बेताब हो चले थे |
बिन पतवार की नाव हो चले थे |
कश्ती छोड़ दी थी उनके भरोसे
उन्होंने पतवार तोड़ दी |
लहरों में डूबने उतराने लगे |
हवा के झोकों ने इसे गहरे सागर में मोड़ दी |
अब तो न किसी की आस
न किसी का इंतजार है |
लहरें उठती गिरती रहती हैं |
न जाने इसे किससे प्यार है |
कृष्ण तवक्या सिंह
19.02.2017