कवितालयबद्ध कविता
फिर याद आया वो टूटा फूटा मकां अपना
बेतरतीब जिन्दगी और छिटका समान अपना
वो खूँटी से टंगी तंग दिवारों पर कपड़े की पोटली
वो रोज ढोती साइकल पर अरमान अपना।
चंद सासों का वो मालिक जो था घर
झांकती सूरज जिसके सांकल के अंदर
कुछ रोके हुए सपनों को निगेबाह अपना
फिर याद आया वो टूटा फूटा मकां अपना
न जाने कितने ही प्रेम के जिसमें तोहफे सजे थे
भले ही झरते हैं अब धूल जो है बियाबां अपना।
कभी तार तार होके छप्पर जहां बूँदें बरसती थी
छन करती थी सिहरन वो साजो समान अपना
फिर याद आया वो टूटा फूटा मकां अपना।
जिसने हर मुसीबत में लड़ना सिखाया
चंद सासों को जिसने जिन्दगी बनाया
धड़कती हैं जहाँ अब भी पुरखो की धड़कने
कुछ धुंधली यादे कुछ संजोये सपने
जहाँ बचपन की परछाई किलकारी मारती
जहां बेबस जिन्दगी भी रह रह भारती
याद आता है अब वो साजो समान अपना
फिर याद आया वो टूटा फूटा मंका अपना।
सुंदर प्रस्तुति।
बहुत बहुत आभार आपका