कविताघनाक्षरी
* कसक *
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शहर की ऊँची इमारतों और,
चमचमाती चकाचौंध में।
वो तारों की मनभावन टिमटिमाहट
ढूँढती हैं मेरी उदास आंखें ।।
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दो कमरों के बंद फ्लैट के,
कुशन लगे सोफ़े पर बैठ
खुले आंगन की चारपाई पर
गूंजती अपनों की खिलखिलाहट।
ढूँढती हैं मेरी उदास आँखें ।।
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कालबेल की ऊँची आवाज सुन,
दरवाजे को खोलने जाने तक
वो गाँव वाले पुराने घर की
साँकल की सुहानी खटखटाहट।
ढूँढती हैं मेरी उदास आंखें ।।
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वो पिंजरे में बंद पंछियों की,
उदास सी रुआँसी बोली में
वहाँ बरामदे में उड़ती गौरैया
और प्यारी चिडियों की चहचहाहट।
ढूँढती हैं मेरी उदास आंखें ।।
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शहर की भीड़ में खो गयी हूँ मैं ,
हाँ, कितना अकेला हो गयी हूँ मैं
दादी-नानी, बचपन के किस्से
टूट गया संसार सलोना
बाँट लिए जब मन के हिस्से।
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अब समझा चित्त की बेचैनी,
टूटे नातों की खोयी गरमाहट ।
ढूँढती हैं मेरी उदास आँखें ।।
पल्लवी रानी
मौलिक सर्वाधिकार सुरक्षित
कल्याण, महाराष्ट्र