कविताअतुकांत कविता
गरीबी और परायापन
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कौन बात करता है आजकल गरीब जानकर |
लोग अपना मुँह फेर लेते हैं उसे बदनसीब मानकर |
सबको डराती है यह गरीबी ,रूलाती है यह गरीबी |
दूर हो जाते हैं अपने भी ,कोई रह न जाता करीबी |
छले जाते हैं झूठे वादों से ,बाँधे जाते हैं टूटे धागों से
वो रिश्ते जो दिखते थे जुड़े हुए अटूट इरादों से
क्षणभर में छिन्न भिन्न हो जाते हैं जैसे कभी जुड़े ही न थे |
राहें अलग अलग हो जाती हैं जैसे कभी मुड़े ही न थे |
धन ही तो वह बँधन था जो इन रिश्तों को बाँधे था
अपनेपन का लेप था ,भावनाओं का जो खेप था |
अब वह लेप छूट गया ,परायेपन का अंकुर फूट गया
ऐसा काँटा बनकर निकला हर रिश्ते को लूट गया |
हर कोई डरता है कहीं माँग न ले कुछ मुझसे |
लौट न पाएगा कभी ,कैसे कह पाऊँगा उस तुच्छ से |
कोई अन्जाना दया की भीख दे जाता है |
अपनों की भीड़ में ,हर कोई पराया दिख जाता है |
कृष्ण तवक्या सिंह
21.02.2021.