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आस्था का प्रतीक हमारी नदियां
भारत दुनिया का एक मात्र ऐसा देश हैं, जहां नदियों को देवी का दर्जा दिया गया हैं।भारत में कई नदिया है इसलिए भारत को नदियों का देश भी कहा गया है।हम नदियों को पतितपावनी, मोक्षदायिनी मानते हैं,न की सामान्य जलधारा।सदियों से भारतीय समाज के हर वर्ग और समुदाय ने नदियों को अपनी भावनात्मक आस्थाओं का प्रतीक मानकर वंदना की है।
हमारी नदियां आदिकाल से हमारी आस्था और श्रद्धा का केंद्र रही हैं। वे मातृ स्वरूपा मां कहलाती हैं, जिन्होंने मातृभाव से अपने तटवर्ती भूभागों का पालन-पोषण किया, उन्हें तीर्थ बना दिया।यही नहीं नदियां देश के आर्थिक एवं सांस्कृतिक विकास में प्राचीनकाल से ही महत्वपूर्ण रही हैं।
सिन्धु तथा गंगा नदियों की घाटियों में ही विश्व की सर्वाधिक प्राचीन सभ्यताओं - सिन्धु घाटी तथा आर्य सभ्यता का आर्विभाव हुआ। आज भी देश की सर्वाधिक जनसंख्या एवं कृषि का जमाव नदी घाटी क्षेत्रों में पाया जाता है। प्राचीन काल में व्यापारिक एवं यातायात की सुविधा के कारण देश के अधिकांश नगर नदियों के किनारे ही विकसित हुए थे तथा आज भी देश के लगभग सभी धार्मिक स्थल किसी न किसी नदी से सम्बद्ध हैं।
सदियों से भारत में गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र और कावेरी नदी धार्मिक आस्था का केंद्र रही हैं। ऐसी आज भी मान्यता है कि इन नदियों में पडुबकी लगाने से कई पापों से मुक्ति मिल जाती है। आज भी भारत के कई राज्यों में इन नदियों की हर शाम पूजा की जाती है।
धार्मिक आस्था से जुडी गंगा , 'गंगा मां' 'गंगा मईया'कहलाती हैं।
यमुना नदी को भगवान श्री कृष्ण की संगनी कहा जाता है। ब्रजवासी यमुना को 'माता' मानते हैं।
नर्मदा भी गंगा और यमुना नदी की तरह धार्मिक महत्व रखती है। मान्यता है कि इसकी परिक्रमा करने से पाप मिट जाते हैं, और पुण्य की प्राप्ति होती है।
ब्रह्मपुत्र सबसे प्राचीन नदियों में से एक है।कई धार्मिक ग्रंथों में इसे ब्रह्मा का पुत्र माना जाता है।
दक्षिण भारत में कावेरी सबसे पवित्र नदी मानी जाती है।इसके किनारे बसा शहर तिरुचिरापल्ली हिंदुओं के लिए एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान भी है।इसे 'दक्षिण भारत की गंगा' नदी भी कहते हैं।
विश्व में गंगा की अपनी एक अलौकिक पहचान है। यह अलौकिक पहचान गंगाजल के प्राकृतिक गुण से हैं। इसी ने गंगा को न केवल अद्भुत बनाया है, बल्कि जिज्ञासावश शोध का विषय भी। गंगाजल को अमृत कहते हैं। गंगाजल में विद्यमान जीवाणुभोजी तत्वों में आश्चर्यचकित शक्ति एवं क्षमता है, जो उसे शाश्वत बनाता है, इसलिए गंगा को सृष्टि की प्राणधारा कहते हैं। तभी कहा गया है 'गंगाजलेकीटाणुवु न जायन्ते।'
आदिकाल से जीवनदायी रही ये नदियां पूजी तो जाती हैं, लेकिन प्रदूषण मुक्त नहीं की जाती हैं। मातृभाव दिखाया जाता है, किंतु संतान के दायित्व से उपेक्षा की जाती है। मूर्तियों का विसर्जन,
रासायनिक अवशेष,मानव अवशेष,मलमूत्र, पूजा के फूल प्रवाहित करना, नालों की गंदगी समाहित होने से नदियों का दम घुट रहा है।
हर्ष का विषय है कि समाज के कुछ हिस्सों में जागरूकता बढ़ी है,यह बात उत्साहित करती है। किंतु जब तक समाज का हर वर्ग जागरूक न हो, तब तक सुनिश्चितता से कुछ कर पाना संभव नहीं। नागरिकों में अनुशासन आए। हमारी भावी पीढ़ी हमें यह ना कह सके कि पर्यावरण को बचाने के लिए हम सिर्फ सरकारों का मुंह ताकते रहे।
स्वयंसेवकों के साथ विभिन्न गतिविधियों के माध्यम से विशेष रूप से युवाओं और बच्चों के भीतर जागरूकता पैदा कर मुहिम चलाई जाए।हम हर संभव प्रयास करें जिनसे जीवनदायिनी नदियों का प्रवाह निर्बाध बना रहे।
गीता परिहार
अयोध्या