कवितालयबद्ध कविता
बन जायेगा मंदिर भी पर राम कहाँ से लाओगे।
पत्थर की इन मूरत को क्या फिर से जिंदा कर पाओगे।
कहते फिरते हो हम सब एक है क्या एक तुम बन पाओगे।
पूजोगे क्या इनको भी क्या पापों से बच पाओगे।
मर्यादा में पले बढ़े जो उनको खोज क्या लाओगे।
बोलो बोलो उस मर्यादा का क्या तुम पालन कर पाओगे।
क्या त्यागकर तुम गुस्सा अपना मुस्कुराहट में रह पाओगे।
क्या मंदिर बनने से खाली तुम अपने पाप धो पाओगे।
क्या रोज पूजने राम को तुम उस मंदिर के चक्कर लगाओगे।
बैठेंगे वहां गरीब अनेक क्या उनके पेट भर पाओगे।
क्या खाली मंदिर बनने से तुम राम के मन में बस जाओगे।
हिन्दू और मुस्लिम की लड़ाई में क्या तुम राम की गंगा बहा पाओगे।
जब प्रेम नही है दिल में तब राम कहाँ से लाओगे।
मंदिर तो बनाओगे पर निस्वार्थ भक्ति कहाँ से लाओगे।
क्या अहम को अपने मार पाओगे।
क्या खुद राम बन पाओगे।
हाँ खुश हूँ मैं उस मंदिर फैसले पर दुखी आज के हालात पर हूँ।
लगाकर करोड़ों मंदिर पर क्या भूखे का पेट सहला पाओगे।
अगर होती मस्जिद तब भी कहती क्या अल्लाह को धरती पर ला पाओगे।
क्या शांतिमय भारत बना पाओगे।
क्या मन में ईश्वर, अल्लाह ईशा वाहेगुरु को बसा पाओगे।
क्या स्वार्थ का चोला हटा पाओगे
क्या एक दूसरे के बन पाओगे। - नेहा शर्मा