कविताअतुकांत कविता
मज़बूरियों का साया ओढ़
जो निकले थे,
सब छोड़ कर
कुहों की गूँजे अब भी
रह रह कर कुंजती होगी ना।
तुमने भी तो सुना होगा ना,
हम जब मिले थे,
आखिरी बार,
काश!
अपनी साँसों के मशवीरे में
हम भी शरीक़ हो गए होते
कितने क़रीब थे हम,
तुमने भी सुना होगा ना।
तुम्हारे बगैर
एक करवट की दूरी को काटने में
कितना वक्त लग सकता है,
की हर एक सुबह थक कर सो जाता हूँ।
गोली एक नींद की तुम्हें भी निगलनी पड़ती है ना।