कविताअतुकांत कविता
जाती नहीं आंखों से सूरत तुम्हारी...
माँ !सुन रही है ना मेरे दिल की आवाज़, इतने साल
बीत गये पर तुम्हारा छोड़कर दुनिया चले जाना,
आज भी सबसे बड़ा झूठ लगता है जानती हूँ कहीं नहीं
तुम ! मगर आस-पास ही हो क्यों ऐसा लगता है ।।
आज भी पापा तुम्हारी चीज़ों को छूने नहीं देते,
कायदे-करीने से रखी ड्राइंग रुम की चीज़ें हों या
किचन की क्राकरी साफ़-सुथरी करके फिर वहीं रख
दी जाती हैं जैसे किसी संग्राहलय कीअनमोल धरोहर।।
मायके में हर जगह अक़्स तुम्हारा दिखता है,
वो दोड़-दौड़कर ज़रूरतें पूरी करना याद आता है,
हर सुबह से शाम न जाने कितनी बार ख़ुद में पाती हूँ
छवि तुम्हारी, क्यों जाती नहींआंखों से सूरत तुम्हारी ।।
डॉ यास्मीन अली
हल्द्वानी, उत्तराखंड ।