कहानीसामाजिक
साहित्य अर्पण,एक पहल
चित्राक्षरी आयोजन फरवरी
वह वृक्ष
गाँव से सटकर बहती थी नदी और फिर थी खुली जमीन और उस जमीन पर था एक विशाल इमली का वृक्ष। वह वृक्ष भी बहुत ही विशाल था। मेरे सारे दोस्तों को अपने अंक में लेकर भी झूमता।इस वृक्ष से बचपन की अनगिनत यादें जुड़ी हुई हैं।मेरी पसंदीदा जगह थी।
इस पेड़ को तोते, चिड़ियाँ गुलज़ार रखते।बंदर भी अपनी शरणस्थली बनाते।दिन में कई बार अनायास आकश्र टहनियों को जोर जोर से हिलाते। बहुत बार चिड़ियों के घौसलो को नुक्सान पहुंचता। उस वृक्ष से कुछ ही कदम की दूरी पर मेरा घर था।
शाम को उस वृक्ष पर इतने तोते रहते कि उनके शोर में बाकी सब आवाजें गुम हो जाती।
इमली बटोरने कुछ बच्चे आते। दीवाली के त्योहार में जिमीकन्द बनता है। जिमीकन्द को इमली की पत्तियों में लपेटकर उबाल कर सब्जी बनती है,सो आसपास की औरतों की यहां भीड़ लग जाती।
लगता जैसे सभी त्योहार को मनाने के लिए जुटी हों।जैसे जैसे शाम ढलती थी वैसे वैसे उस वृक्ष की रौनक बढ़ती थी।उस वृक्ष की पत्तियों और शाखाओं पर इतने जुगनू चिपके रहते थे जैसे लगता था, वृक्ष पर बिजली की झालरें टंगी हों।
हम उस जगह करीब दो दशक रहे ,फिर अपना मकान बनवा लिया और दूसरी जगह आ गए। मगर वहां से महीने 2 महीने में गुजरना हो जाता था।एक दिन देखा कि वहां बहुमंजिली इमारत बन रही है। वह वृक्ष कहीं नहीं था।
मुझे याद आया कभी हमारे शिक्षक ने कहा था," विध्वंस से ही निर्माण की प्रेरणा मिलती है।"मैंने तब भी पूछा था,ऐसा क्यों?और वे निरुत्तर थे।आज भी इस सवाल का जवाब मुझे नहीं मिल सका है।
उन्होंने काल्पनिक पौराणिक पक्षी फिनिक्स की कहानी सुनाई थी। जो जलकर राख होने के बाद भी अपनी जिजीविषा और दृढ़ आत्मविश्वास के बल पर पुनर्जीवित हो जाता है। यह जिजीविषा मैंने पत्थर का सीना फाड़ कर निकले हुए अनेक पौधों में देखी है। काश, वह पेड़ भी उस बहुमंजिला इमारत का सीना चाक कर दे!
गीता परिहार
अयोध्या