कविताअतुकांत कविता
पुरुष की वेदना
कुछ पुरुष स्त्री प्रताड़ित भी होते हैं
वो भी सहते हैं घुटते हैं
अवसादग्रस्त हो अंदर ही अंदर तड़पते हैं
सुनते हैं हर रोज़ एक नया ताना
वो झेलते हैं प्रतिदिन रूह को भेदती यातना
दिल चित्कार करता है उनका भी
सीना दर्द और तड़प से जब भर जाता है
तब वे शिकार बनते हैं हृदयाघात के
और फिर एक दिन वे मुक्त हो जाते हैं सारे कष्टों से और मुक्त कर भी जाते हैं
कुछ पुरूष भी अलगाव का दंश झेलते हैं
नर्म मुलायम गद्दे शूल से चुभते हैं उन्हें
अकेली तन्हा रातें उन्हें भी डरातीं हैं
सपनों में अक्सर डर कर पसीने पसीने हो जाते हैं जब वे
उस वक्त एक आलिंगन चाहते हैं सुकून भरा
चाहते हैं संगिनी के संग निर्विघ्न नींद
पर पलंग का दूसरा सिरा खाली ही रहता है
गृहस्थी की गाड़ी के कल पुर्ज़े जंग खा गए
उनींदी आँखों से खुद को उठा सुबह की चाय बनाते हैं वे हमेशा दो कप बिना शक्कर की
फीकी चाय भाने लगी है अब , मिठास से उबकाई जो आने लगी है उन्हें अब
कुछ पुरूष पिता होने का दर्द भी सहते हैं
हर दिन की फरमाइशों को पूरा करते करते
थक कर चूर हो जाते हैं फिर भी चप्पलें घिसते हैं अनवरत
पर उनके लाड़ले सन्तुष्ट नहीं होते उनसे कभी
उनके पापा ने कुछ नहीं किया कभी उनके लिए
दोस्तों के पापा कितने अच्छे हैं , सुनकर दुखते हुए दिल को कसकर पकड़ लेते हैं
सुख सुविधा ऐशोआराम का हर सामान बिछा देते हैं
और बदले में उन्हें मिलता है अपमान और तिरस्कार
सुपर हीरो बनने की नाकाम कोशिशें उनकी कोशिकाओं को ही रक्त रंजित कर देती हैं
क्योंकि कुछ पुरूष, पुरूष होने का खामियाजा उठाते हैं ताउम्र
©®
अनामिका प्रवीन शर्मा
मुम्बई