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न्याय - Gita Parihar (Sahitya Arpan)

कविताअतुकांत कविता

न्याय

  • 230
  • 4 Min Read

न्याय

 आक्रोशित जनता पूछती है,

 न्याय है भी? न्याय है कहां ?

 घर न बाहर, कहां है सुरक्षित बेटियां?

असुरक्षा,भय आतंक का है समाज 

यौन विकृत भेड़िए लपलपाती, रक्त पिपासु 

  जिह्वा लटकाए घूमते जहां ?


  कैसे परिभाषित हो सभ्य समाज

  जहां क्रूरता, नृशंसता का हो राज 

जहां कानून अंधा, बहरा हो

 जहां रक्षक ही भक्षक हो

जहां झूठ का बोलबाला हो 

और सच्चे का मुंह काला हो

तब किससे करें गुहार 

कैसा हो फिर न्याय ?


अपराधी अपील से छूटे 

पीड़ित प्रताड़ना से टूटे

इस खूंटे से उस खूंटे तक 

न्याय की आस करें हर बार 

 कानून दिखे लाचार


जनता गर प्रतिकार पर उतरी

 मचेगा हाहाकार ।

न्याय की देवी खोलो आंखें

आओ बीच सड़क पर तुम

फिर समझोगी जीवन में

हर पल कितना कष्ट झेलते हम।

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Maniben Dwivedi

Maniben Dwivedi 3 years ago

बहुत सुंदर सार्थक सृजन

Maniben Dwivedi

Maniben Dwivedi 3 years ago

बहुत सुंदर सार्थक सृजन

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