कविताअतुकांत कविता
संवेदना कुलबुलाती है मन में मेरे कई बार
देख नही पाती मैं किसी पर किसी का अत्याचार।
पर जब आदमी नही कर सकता कुछ भी कार्य
तब पुलिंदा संवेदनाओ का थोपता दूसरों पर यार।
औरतों को देखिए प्रतिमुर्ती ईर्ष्या की
जलती हैं एक दुसरे से देख के उन्नति नयी
पर कुछ भी हो जाए तो संवेदना तैयार है
दूसरों पर हावी होने का यही हथियार है।
कभी-कभी संवेदना भरपूर झकझोर देती है
सीधे सादे मन को नींबू सा निचोड़ देती है
संवेदना छीन लेती है अधरों की मुस्कान
और आंखे हो जाती हैं सुनसान बियाबान।
संवेदना मेरी उन वृक्षों से जो कभी ना बोलते
कट जायें डाल सारी खून से ना खौलते
संवेदना उन नदियों से जिनमें मल हम बोरते
अंक में असीमित पानी आखों से ना रोते।
संवेदना उन बेजुबानों से जिनकी आंखे सहमी हैं
आदमियों में जिनको खाने की बड़ी ही गहमा-गहमी है।
संवेदना उस वायु की जिनसे श्वास हम लेते हैं
देके हमको शुद्ध वायु जो कचड़े को लेती है।