कविताअन्य
उस पार क्षितिज के जाना है
मन की कोमल पंखुड़ियों पर
जब हुआ कुठाराघात कोई
तब अश्रु की धारा बह निकली,
जब रहा न मेरे साथ कोई
अब खुद का संबल बन जाना है
उस पार क्षितिज के जाना है
जिन संग खुद का नाता जोड़ा
उन अपनों ने ही पल-पल तोड़ा
नयनों में नींर अधरों पे हंसी
दुनिया को दिख लाना है
उस पार क्षितिज के जाना है
खुद के अंदर की उदासी को
जग की खुशियों में क्यों ढूंढा
मन के अंदर कस्तूरी थी
बाहर मृग बनकर क्यों ढूंढा
जब काली निशा घनेरी हो,
झंझावातों ने घेरा हो
तब श्याम का दीप जलाना है
उस पार क्षितिज के जाना है
अंजनी त्रिपाठी
स्वरचित मौलिक
16/08/2020